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श्रावक भगवान के पास गए। पर्युपासना की और प्रभु का उपदेश सुना। उपदेश के बाद शंख ने सभी श्रावकों से कहा कि आज चारों प्रकार का आहार बनवाया जाए, हम सब साथ ही भोजन करेंगे, तदुपरान्त पाक्षिक पौषध करके धर्म जागरणा करेंगे। कहकर शंख अपने घर चला गया। घर पहुंचते ही शंख का चिन्तन बदल गया। उसने सोचा कि गरिष्ठ आहार करके पौषध करना उचित नहीं है। इस सोच के साथ पत्नी उत्पला को कहकर वह पौषधशाला में चला गया और पौषध की आराधना करने लगा।
उधर भोजन तैयार होने पर सभी श्रावक शंख की प्रतीक्षा करने लगे। उसे बुलाने पोखली को भेजा गया। शंख के घर पहुंचकर पोखली को ज्ञात हुआ कि शंख तो पौषध में बैठा है। वह पौषधशाला में गया और उसने शंख को तीक्ष्ण उपालंभ दिया।
दूसरे दिन शंख ने विचार किया कि प्रभु की पर्युपासना के पश्चात् ही पौषध का पारणा करना चाहिए। इस विचार से वह भगवान के पास गया। वहां उपस्थित श्रावकों ने कहा, शंख ने उनके साथ छल किया है इसलिए वह निन्दा का पात्र है। श्रावकों की बात सुनकर भगवान ने स्पष्ट किया, शंख ने जो किया वह दुश्चिन्तन से प्रेरित बनकर नहीं किया। उसका चिन्तन धर्ममय था। उसने सुदृष्ट जागरिका से जगकर धर्म-जागरणा की है। इसलिए वह निन्दा का नहीं, बल्कि प्रशंसा का पात्र है।
भगवान की बात सनकर सभी श्रावकों ने शंख से क्षमापना की। सबके मन निर्मल बन गए।
भगवान ने गौतम स्वामी के एक प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट किया कि शंख उत्कृष्ट श्रावकाचार का पालन कर प्रथम देवलोक में जाएगा। वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा।
-भगवती सूत्र 12 / 1 (घ) शंख
वाराणसी नगरी का एक राजा। एक बार जब मल्लि के कुण्डलों की संधि टूट गई तो उसे मिथिला का कोई स्वर्णकार ठीक न कर सका। इससे रुष्ट होकर राजा कुंभ ने सभी स्वर्णकारों को अपने देश से निकाल दिया। वे सभी स्वर्णकार वाराणसी नगरी पहुंचे और उन्होंने वहां के राजा से शरण मांगी। राजा शंख ने उनके देश-निकाले की पूरी बात पूछी तो स्वर्णकारों ने सब सच-सच कह दिया। मल्ली का नाम सुनते ही शंख का हृदय उसके प्रति अनुरक्त हो गया। दूत भेजा। अस्वीकृति पर युद्ध के लिए तैयार हुआ। आखिर मल्लि की युक्ति से सम्बोधि को प्राप्त कर उसने संयम धारण किया और मोक्ष को प्राप्त हुआ। (देखिए-मल्लिनाथ तीर्थंकर) (ङ) शंख
ऐरावत क्षेत्रान्तर्गत जयपुर नामक नगर का रहने वाला एक पुरोहित। नगर नरेश चन्द्र ने आत्मरक्षार्थ शंख के पत्र को राजपद प्रदान किया। कछ ही दिन बाद विद्यत्पात से शंख के पत्र का निधन हो गया। शंख ने जान लिया कि राजा ने अपने बचाव के लिए उसके पत्र की बलि दी है। पर राजा से वह प्रतिवाद नहीं कर सकता था। पुत्र-विरह से व्याकुल बनकर उसने आत्महत्या का निश्चय कर लिया। आत्महत्या के लिए उसने अपने नगर से प्रस्थान किया। मार्ग में उसे अवधिज्ञानी जैन मनि सधर्मा का धर्मोपदेश सनने का पण्य-प्रसंग प्राप्त हुआ। उसका आत्महत्या का विचार बदल गया और उसने मुनि दीक्षा धारण कर ली। एकलविहार प्रतिमा को धारण कर वह देश-देशान्तर में विचरण करने लगा। किसी समय एक तापस के लौकिक प्रभाव के प्रवाह में प्रवाहित बनकर उसने जिनधर्म को छोड़कर तापसी प्रव्रज्या धारण कर ली और मरकर किल्विषी देव बना। देवायु पूर्ण कर वह उच्च-नीच गतियों में भटकने लगा।
-कथारत्न कोष, भाग-1 ... जैन चरित्र कोश ...
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