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कल्पित आरोप लगाकर उसे कारागृह में डाल दिया और उसकी चारों पत्नियों को अपने अंतःपुर में बलात् मंगवा लिया। विनयंधर की पत्नियों के रूप को देखकर राजा हैरान रह गया। वैसे रूप की कल्पना भी संभव नहीं थी। रात्रि में वह उस कक्ष में पहुंचा जहां विनयंधर की पत्नियों को रखा गया था। पर रात्रि में उसे वे चारों ही नारियां भयंकर राक्षसियां दिखाई दीं। उनके वीभत्स और विद्रूप चेहरों को देखकर राजा वहां पलभर के लिए भी खड़ा नहीं रह सका। वह उल्टे कदमों से वहां से चला और पौषधशाला में जाकर बैठ गया। वह विनयंधर की पत्नियों के रूप और विद्रूप पर चिन्तन करने लगा। उसकी कुबुद्धि विलुप्त हो गई और सद्बुद्धि जग गई । उसे विश्वास हो गया कि उसे पथभ्रष्ट बनने से बचाने के लिए ही किसी दिव्य शक्ति ने सुरूपा नारियों को कुरूप-रूप में उसे दिखाया है। राजा उसी क्षण कारागृह रक्षक के पास पहुंचा। उसने विनयंधर को करागृह से मुक्त कराया। इतना ही नहीं, उसने विनयंधर के समक्ष अपने मन के दुर्भावों को खोलकर आत्म-आलोचना की और विनयंधर से क्षमा मांगकर उसे मुक्त कर दिया। उसकी पत्नियों को भी ससम्मान उसके घर पहुंचा दिया।
इस घटना ने राजा के धर्मभाव को पुष्ट कर दिया। वह एकाग्रचित्त से धर्माराधना करने लगा। राजकाज से उसका चित्त उचट गया। उसी अवधि में एक अवधिज्ञानी मुनि चम्पानगरी बाहर स्थित राजोद्यान में पधारे। राजा मुनि-वन्दन के लिए गया । विनयंधर भी मुनि दर्शनों के लिए उपस्थित हुआ। राजा ने मुनि से पूछा, मुनिवर ! मेरे नगर में विनयंधर नामक परम पुण्यात्मा श्रेष्ठी निवास करता है। उसने अपने पूर्व जन्म में ऐसे क्या पुण्य किए थे जिनके प्रभाव से वह ऐसा देवोपम समृद्ध और सुखी जीवन यापन कर रहा है ?
श्री विनयंधर का पूर्वजन्म व्याख्यायित किया - विनयंधर पूर्व जन्म में हस्तिशीर्ष नगर का वैतालिक नामक सद्गृहस्थ था। एक बार वह बिन्दु-उपवन में भ्रमणार्थ गया। वहां पर प्रभु सुविधिनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में थे। प्रभु को देखकर वैतालिक को अत्यन्त हर्ष हुआ । उसने उच्च भावों से भरे हृदय से प्रभु की वन्दना और स्तुति की। पुण्ययोग से प्रभु सुविधिनाथ पारणे के लिए उसी के गृहद्वार पर पधारे। वैतालिक प्रभु को अपने द्वार पर देखकर गद्गद बन गया। उसने उत्कृष्ट भावों से प्रभु को आहार दान दिया। देवों ने पंचदिव्य प्रकट कर वैतालिक के दान की प्रशस्ति की । वैतालिक का सम्यक्त्व सुदृढ़ बन गया। कालान्तर में उसने श्रावधर्म अंगीकार किया और आजीवन उसका पालन कर देवलोक में गया। देवलोक से च्यव कर वैतालिक विनयंधर के रूप में जन्मा । जिन भक्ति और श्रावक धर्म की आराधना के फलस्वरूप ही विनयंधर को देवतुल्य सुख-सम्पन्नता प्राप्त हुई है।
राजा ने मुनि से पुनः पूछा, मुनिवर ! मैंने दिन में विनयंधर की पत्नियों को देखा तो वे देवियां प्रतीत हुईं और रात्रि में देखा तो वे मुझे राक्षसियां दिखाई दीं, इस रहस्य को भी स्पष्ट करने की कृपा करें।
मुनि ने फरमाया, राजन ! तुम्हारे पुण्य प्रभाव के कारण ही शासन रक्षक देव ने तुम्हे पतित होने से बचाने के लिए उन नारियों के रूप विद्रूप दिखाए थे । फलतः शासन रक्षक देव का दांव सफल रहा और तुम्हारी धर्मबुद्धि जग गई ।
राजा धर्मबुद्धि प्रबुद्ध बन गया। उसने शासन का भार अपने पुत्र को देकर प्रव्रज्या धारण कर ली । विनयंधर भी विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। दोनों ने निरतिचार तप-संयम की आराधना से केवलज्ञान अर्जित कर निर्वाण प्राप्त किया । - धर्मप्रकरण टीका, गाथा 11
विनयवती
एक पतिपरायणा सन्नारी, चम्पापुरी नगरी के नगर सेठ जिनदास की पुत्रवधू और धनपति की अर्द्धांगिनी । ••• जैन चरित्र कोश -
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