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मेघहस्ती
महावीरकालीन एक जमींदार जो चौर्यकर्म भी करता था। (देखिए-कालहस्ती) मेघा (आर्या)
मेघा आर्या का जीवन परिचय काली आर्या के समान है। विशेष इतना है कि इनके पिता का नाम मेघ गाथापति और माता का नाम मेघश्री था। (देखिए-काली आया)
-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु, प्र.वर्ग, अध्ययन 5 मेतार्य (गणधर) ___भगवान महावीर के दसवें गणधर। वे वत्स देश के तुंगिक नगर निवासी कौंडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण दत्त की पत्नी वरुणदेवा के आत्मज थे। उन्होंने वेद वेदांगों का तलस्पर्शी अध्ययन किया था। उनके गुरुकुल में तीन सौ ब्राह्मण छात्र वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करते थे। मेतार्य अपने युग और क्षेत्र के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान ब्राह्मण थे। अपापावासी सोमिल ब्राह्मण ने उन्हें अपने महायज्ञ में याज्ञिक के रूप में आमंत्रित किया था। __इन्द्रभूति आदि नौ ब्राह्मण विद्वान जब भगवान महावीर को पराजित न कर पाए और स्वयं पराजित होकर भगवान के शिष्य बन गए तब मेतार्य भगवान से शास्त्रार्थ करने चले। भगवान ने उनके मन के संशय को भी प्रकाशित कर दिया। उनका संशय था, देवलोक है या नहीं। बड़े यतन से छिपाए हुए अपने संशय का प्रकाशन और उसका समुचित समाधान पाकर मेतार्य अभिभूत बन गए और अपने तीन सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास दीक्षित हो गए। वे दसवें गणधर कहलाए। ___मेतार्य सैंतीस वर्ष की आयु में दीक्षित हुए। सैंतालीस वर्ष की अवस्था में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और बासठ वर्ष की अवस्था में वे मोक्ष में चले गए।
-आवश्यक चूर्णि मेतार्य मुनि
मेतार्य मुनि का जीवन-आख्यान जैन कथा साहित्य के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हुआ है। चरमशरीरी होते हुए भी वे बड़ी श्रमपूर्ण प्रेरणाओं से संयम-पथ पर आए। एक बार संयम-पथ पर आए तो उसका पालन उन्होंने सिंहवृत्ति से किया और तितिक्षा की मिशाल कायम करते हुए सिद्धत्व को प्राप्त किया। मेतार्य मुनि चरम शरीरी होते हुए भी दुर्लभबोधि क्यों थे, इसके सूत्र खोजने के लिए उनके पूर्वभव पर एक दृष्टिपात करना अनिवार्य है। वह इस प्रकार है
प्राचीन भारत में साकेतपुर नगर में चन्द्रावतंसक राजा राज्य करते थे। उनके दो रानियां थीं-सुदर्शना और प्रियदर्शना। कालक्रम से दोनों रानियों ने दो-दो पुत्रों को जन्म दिया। सुदर्शना के पुत्रों के नाम सागरचन्द्र और मुनिचन्द्र तथा प्रियदर्शना के पुत्रों के नाम गुणचन्द्र और बालचन्द्र रखे गए। ___ यौवनवय में सागरचन्द्र युवराज बना और मुनिचन्द्र उज्जयिनी का शासन संभालने लगा। शेष दो सौतेले भाई अभी अल्पायुष्क थे। एक दिन महाराज चन्द्रावतंसक पौषधशाला में इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग में लीन थे कि जब तक दीप जलता रहेगा वे कायोत्सर्ग में स्थिर रहेंगे। महाराज के संकल्प से अनभिज्ञ दासी इस आशय से पुनः-पुनः दीप में तेल डालती रही कि महाराज के कक्ष में प्रकाश बना रहे। पूरी रात कायोत्सर्ग में खड़े रहने से महाराज का शरीर अकड़ गया। समताभाव से देह त्याग कर वे देवलोकवासी बन गए। अकस्मात् पितृ वियोग से सागरचन्द्र विरक्त बन गए। पर विवशता वश उन्हें शासनसूत्र संभालना पड़ा। ... 462 ..
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