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अंगजातों की भूख को तैर नहीं पाया। हार चुराकर घर आ गया और पत्नी को सब बात कह दी। सुनकर सुशीला कांप गई। श्रमणोपासक होकर चोरी ......? उपाश्रय से चोरी ....? उसने सेठ को विवश किया कि इसी क्षण लौटकर वह नगर सेठ का हार लौटा कर आए। पर रमणीकलाल ने बच्चों की भूख की बात कहकर पत्नी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। पत्नी ने कहा, तो तुम सीधे नगर सेठ के पास जाओ और उसका हार उसी के पास गिरवी रखकर कुछ धन प्राप्त कर लो। निश्चित ही जिनदास हमारी स्थिति को जानकर समुचित व्यवहार करेंगे।
___ उधर जिनदास ने वस्त्रों से हार को गायब पाया। वे एक सच्चे जैन श्रावक थे। सोचा, किसी संकटग्रस्त साधर्मी बन्धु ने ही हार लिया होगा। इसमें दोषी हार लेने वाला नहीं, दोषी मैं हूं जिसने संकटग्रस्त साधर्मी को न पहचान कर उसकी सहायता नहीं की। ऐसा सोचकर जिनदास ने हार की चोरी की बात विस्मृत कर दी।
दूसरे दिन रमणीकलाल हार को गिरवी रखने जिनदास के पास पहुंचा। पहचान कर भी अपरिचित बने रहकर जिनदास ने रमणीकलाल की इच्छानुरूप उसे दस सहस्र स्वर्णमुद्राएं उधार दी और कहा, तुम मेरे साधर्मी भाई हो, इसलिए मैं हार को गिरवी नहीं रखूगा। रमणीकलाल ने गिरवी रखने की जिद्द की। इधर यह आग्रह-अनुग्रह चल रहा था कि सेठ जिनदास का पुत्र उधर आ गया और उछलकर बोला, पिताजी ! यह हार तो आपका ही है। जिनदास ने पुत्र से कहा, संभल कर बोलो ! किसी के हार को अपना कह रहे हो। हां, यह सच है कि रमणीकलाल के पिता ने और मैंने एक ही समय में दो हार बनवाए थे, जो एक समान थे। यह रमणीकलाल के पिता का हार है।
रमणीकलाल जिनदास की महानता देखकर बड़ी कठिनाई से अपने आंसूओं को रोककर और भरपूर आग्रह पूर्वक हार को गिरवी रखकर धन लेकर अपने घर आ गया। उस धन से उसने व्यापार शुरू किया और शीघ्र ही उस धन को कई गुणा बना दिया। उचित समय पर सेठ को धन लौटाने के लिए रमणीकलाल उसके घर गया। धन लेकर जिनदास ने हार रमणीकलाल के हाथ पर रख दिया। इस बार रमणीकलाल अपने धैर्य को रोक न सका और सेठ के चरण छूकर वस्तुस्थिति वर्णित कर दी। जिनदास ने कहा, भाई! चोरी का अपराध तुमने नहीं किया। असल अपराधी तो मैं हूं जिसने अपने साधर्मी भाई के कष्ट को नहीं पहचाना। मैं इधर स्वर्णथालों में भोजन करता रहा और मेरे भाई के नन्हे-मुन्ने अन्न के कण को तरसते रहे।
___ दोनों साधर्मी गले-मिले। धर्म का सम्यक् पालन करते हुए सेठ रमणीकलाल और नगरसेठ जिनदास आदर्श जीवन जीकर सद्गति को प्राप्त हुए। रवि वर्मा
कदम्ब वंशीय नरेश । जैन धर्म के प्रति अनन्य आस्थाशील रवि वर्मा ने जैन धर्म को राज्य सरंक्षण दिया था। जिन प्रभावना के कई महनीय कार्यक्रम उसने किए। ई.स. 490 से 537 तक उसने शासन किया।
-जैन शिलालेख संग्रह "रसाल कुमार
आनन्दपुर नरेश जितशत्रु और रानी मालिनी का इकलौता पुत्र । जब वह पैदा हुआ तब भविष्यवेत्ताओं ने राजा को बताया कि यह पुत्र उनके कुल के लिए अपयश का कारण बनेगा। इस बात से राजा बहुत चिन्तित हुआ। उसने भविष्यवेत्ताओं से उसका निदान पूछा तो उन्होंने ज्योतिष का गणित बैठाते हुए एक ... जैन चरित्र कोश ..
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