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वसन्तर की इस दानशीलता की कीर्तिकथा पृथ्वी की परिधि को पार कर स्वर्ग तक में कही सुनी जाने लगी। गद्गद बना देवराज इन्द्र एक वृद्ध, अशक्त और रुग्ण ब्राह्मण का रूप धारण कर वसन्तर के समक्ष उपस्थित हुए और अपनी अवस्था की बात कहते हुए बोले, दानवीर ! यदि तुम अपनी पत्नी को मेरी सेवा के लिए अर्पित कर सको तो मेरा बुढ़ापा शांति से बीत सकता है।
कठिनतम क्षण उपस्थित था वसन्तर के समक्ष । उसने पत्नी की ओर देखा। पति की परीक्षा के क्षण में वीरांगना मंदी ने पति को प्रणाम किया और कहा कि मैं वृद्ध ब्राह्मण की सेवा के लिए प्रस्तुत हूँ । वसन्तर अपनी पत्नी को भी दान में दे दिया । वसन्त की दानवीरता को देखकर देवराज दंग रह गए। प्रकट होकर उन्होंने वसन्तर की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की और उसे अक्षय समृद्धि के दाता कुण्डल युग्ल प्रदान किए।
शिवानगरी के दरबारियों को जब ज्ञात हुआ कि वसन्तर ने अपने पुत्र और पुत्री भी दान दे दिए हैं तो उन्हें अपने निर्णय पर बड़ी ग्लानि हुई । उनकी समझ में आ गया कि जो व्यक्ति अपने पुत्र-पुत्री को भी दान में दे सकता है उसके लिए एक हाथी को दान में दे देना कहां मुश्किल है ? वसन्तर के पिता महाराज संजय ने जुजक ब्राह्मण को पर्याप्त स्वर्ण देकर अपने पौत्र और पौत्री को प्राप्त कर लिया।
शिवानगरी की प्रजा ने बंकचूल पर्वत पर पहुंचकर राजकुमार वसन्तर से क्षमा मांगी और नगर में लौट चलने की प्रार्थना की। प्रजा की प्रार्थना को शिरोधार्य कर वसन्तर नगरी में आ गया। महाराज संजय वसन्तर को राजगद्दी पर बैठाकर प्रव्रजित हो गए। वसन्तर ने सुदीर्घ काल तक शासन किया। उसके दान की कीर्ति-कथाएं जन-जन के कण्ठ से गूंजती रहीं। अंतिम अवस्था में प्रव्रजित बनकर वसंतर ने विशुद्ध संयम का पालन किया और स्वर्ग पद पाया । देवभव से व्यव कर और मानव जन्म ग्रहण कर वसंतर मोक्ष जाएगा।
वसन्तश्री
कंचनपुर की राजकुमारी और हरिबल की परिणीता । ( देखिए-हरिबल)
वसन्तसेना
एक बुद्धिमती गणिका, जिसने अपने जीवन के पश्चिम प्रहर में निन्दनीय व्यवसाय को तिलांजलि देकर धर्ममय जीवन जीने का संकल्प लिया था । (देखिए - जिनदत्त)
वसुंधरा
पोतनपुर नगर के पुरोहित-पुत्र मरुभूति की पत्नी । ( देखिए-मरुभूति) वसुंधरा (आर्या )
आर्या वसुंधरा का समग्र जीवन वृत्त काली आर्या के समान आगम में वर्णित हुआ है । विशेषता मात्र इतनी है कि इनका जन्म कौशाम्बी नगरी में हुआ और कालधर्म को प्राप्त कर यह ईशानेन्द्र की पट्टमहिषी के रूप में जन्मी । (देखिए - काली आया) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि. श्रु., वर्ग 10, अ. 8
(क) वसु
कंचनपुर नगर निवासी एक श्रमणोपासक जिसका समग्र जीवन प्रामाणिकता, परोपकारिता आदि सद्गुणों की सुरभि से सुरभित था। उसी नगर में हंस नामक एक अन्य श्रेष्ठी रहता था जो धूर्त और अतिशय धन-लोलुप था। वसु को ठगने के लिए हंस ने मधुर व्यवहार का आवरण ओढ़कर उससे मैत्री स्थापित कर ली और अपने पुत्र के विवाहोत्सव पर वसु से उसका एक करोड़ मूल्य का स्वर्णहार उधार ले गया।
हंस के मन में मैल
जैन चरित्र कोश •••
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