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(क) रोहिणी
पाटलिपुत्र नगर के नगरसेठ धनावह की पत्नी, एक परम पतिपरायणा सन्नारी। एक बार सेठ धनावह व्यापार के लिए विदेश गए। उसी अवधि में नगर नरेश श्रीनन्द ने एक बार रोहिणी को देखा तो वह उसके रूप पर मग्ध बन गया। श्रीनन्द श्रमणोपासक और श्रावक था. सो वह शक्ति से रोहिणी को अपनी नहीं बना सकता था। उसने युक्ति का आश्रय लिया और अपनी एक विश्वस्त दासी को अपने प्रेम प्रस्ताव के साथ रोहिणी के पास भेजा। राजा का ऐसा निन्दनीय प्रस्ताव सुनकर रोहिणी को बड़ा क्रोध आया। परन्तु उसने शीघ्र ही अपने क्रोध पर अंकुश लगा लिया। उसने विचार किया राजा मेरा साधर्मी भाई है। मेरा दायित्व यह है कि उन्मार्ग पर जाने को उत्सुक अपने भाई को धर्म युक्ति से रोकू। ऐसा सोचकर उसने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
दासी के मख से उसकी सफलता का संवाद सनकर राजा अति प्रसन्न हआ। राजा रात्रि में रोहिणी के भवन पर पहुंचा। रोहिणी ने राजा का स्वागत किया। तब उसने बत्तीस प्रकार का भोजन बनाया। उस भोजन की विशेषता यह थी कि वह रंग-रूप और आकार में तो बत्तीस प्रकार का था पर स्वाद में एक समानथा। रोहिणी ने बत्तीस स्वर्ण कटोरियों में राजा को भोजन परोसा। राजा ने कहा, मैं जिनोपासक श्रावक हूँ और रात्रि भोजन का मुझे त्याग है। इस पर रोहिणी ने कहा, महाराज! त्याग तो दिन के उजाले में होता है, रात्रि के पर्दे में नहीं। इस वाक्य से राजा के हृदय पर एक चोट लगी पर उसने रोहिणी के प्रस्ताव पर भोजन शुरू कर दिया। भोजन बत्तीस प्रकार का था पर सभी व्यंजनों का स्वाद एक समान था। इस पर राजा ने कहा, रोहिणी! बत्तीसों ही कटोरियों का स्वाद समान है, रंग-रूप में ही विभेद है। अच्छा होता कि तुम एक ही कटोरी मेरे लिए परोसती। इस पर रोहिणी बोली, महाराज ! मैंने आपकी रुचि को ध्यान में रखते हुए ही ऐसा किया है। राजा ने पूछा, मेरी रुचि ऐसी क्योंकर है ? रोहिणी बोली, राजन् ! आप रंग और रूप के लोभी हैं। इसीलिए तो अपनी अनेक पत्नियों को छोड़कर मेरे रूप पर लुब्ध बनकर यहां चले आए हो। राजन्! जैसे ये बत्तीस कटोरियों के व्यंजन मात्र रंग-रूप में ही भिन्न हैं , स्वाद में नहीं, ऐसे ही समस्त स्त्रियां मात्र रंग-रूप में ही तो भिन्न हैं, स्त्रीत्व तो सब में समान है।
रोहिणी की बातों का राजा पर अचूक प्रभाव हुआ। उसके बाद रोहिणी ने उसे समझाया कि काम प्रवाह में बहकर वह प्रथम कदम पर ही नियम भ्रष्ट हो गया है। कामी के पतन की कोई पराकाष्ठा नहीं है। इसलिए उसे अपने विवेक और चरित्र से भ्रष्ट नहीं होना चाहिए। राजा प्रजा का पिता होता है। इसलिए एक पिता द्वारा पुत्री का उपभोग सर्वथा निंदनीय और त्याज्य है। सुनकर राजा की विवेक-बुद्धि जागृत हो गई। उसने रोहिणी को अपनी बहन मान लिया और अपने महलों में लौट आया।
कुछ समय पश्चात सेठ धनावह विदेश से लौटा और अपने विश्वस्त सेवकों द्वारा यह जानकर कि एक रात्रि में राजा उसके भवन पर आया था और रोहिणी ने उसका स्वागत किया था, दुराशंका से ग्रस्त हो गया। रोहिणी को दुश्चरित्रा मानकर वह उससे विमुख रहने लगा। इससे रोहिणी उदास हो गई। उन्हीं दिनों एक घटना घटी। तेज बरसात होने लगी। जल-स्थल एक रूप हो गया। नगर पानी से भर गया। कच्चे घर बह गए। पक्के भवनों की भी पहली मंजिल पानी में डूब गई। एक अज्ञात भय से जनमानस संत्रस्त बन गया। ऐसे में निमित्तिज्ञों ने राजा से बताया कि कोई सती सन्नारी जलस्पर्श कर जल उतरने का संकल्प करे तो नगर जल के उपसर्ग से रक्षित हो सकता है। राजा ने नगर में वैसी घोषणा कराई। परन्तु कोई भी नारी वैसा करने का साहस न दिखा सकी। संध्या के समय नौका पर आरूढ़ होकर रोहिणी राजमहल के सामने पहुंची। ... 506 ..
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