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बल्कि रूगा को 'अच्छा सबक सिखाया। बाद में रूगा को वह सज्जन बनाने में भी सफल रही। लीलावती ने धर्मध्यान पूर्वक जीवन व्यतीत कर स्वर्ग प्राप्त किया।
(ग) लीलावती
चन्द्रपुर नरेश जयसेन की रानी। एक आदर्श मातृ-हृदया नारी । (देखिए - चन्द्रसेन) (घ) लीलावती
पैठणपुर नरेश महाराज नरवाहन की पटरानी और एक दुश्चरित्रा नारी । ( देखिए-हसंराज) (ङ) लीलावती
भरतपुर नरेश जयसेन की महारानी पद्मावती की अंगजाता, एक अनिंद्य सुंदरी राजकुमारी । लीलावती जब अविवाहिता ही थी तो जयसेन ने अपने विश्वस्त मंत्री सज्जन सेन को राज्य भार और पुत्री का विवाह दायित्व प्रदान कर अपनी रानी पद्मावती के साथ प्रव्रज्या धारण कर ली थी । कालान्तर में सज्जन सेन ने लीलावती का स्वयंवर रचाया। स्वयंवर में विजयपुर नगर का युवराज चन्द्रसेन और कनकपुर नरेश कनकरथ सहित अनेक राजा और राजकुमार आए। लीलावती ने चन्द्रसेन के गले में वरमाला डालकर उसे अपने पति के रूप में चुना। कनकरथ ने इसे अपना अपमान समझा। वह उस युग का एक बलवान राजा था। उसने चन्द्रसेन को ललकारा, पर उपस्थित राजाओं और राजकुमारों द्वारा धिक्कार दिए जाने पर कनकरथ को मौन हो जाना पड़ा । चन्द्रसेन लीलावती को साथ लेकर अपने नगर को चला गया।
कनकरथ स्वयंवर मण्डप में तो मौन हो गया, पर लीलावती के रूप-सौन्दर्य को वह भुला नहीं पाया । कालान्तर में उसने विजयपुर पर आक्रमण कर दिया । चन्द्रसेन और लीलावती की जंगल की शरण लेनी पड़ी। कई वर्षों तक चन्द्रसेन और लीलावती अलग-अलग अनेक कष्ट सहते हुए यत्र-तत्र भटकते रहे । लीलावती के शील पर कई बार दुष्ट पुरुषों की कुदृष्टि पड़ी। उससे उसे दुःसह स्थितियों से गुजरना पड़ा, पर उसने अपने शीलव्रत का पूरे साहस से पालन किया। अंततः चन्द्रसेन ने मित्र राजाओं के सहयोग से कनकरथ को पराजित किया और अपनी रानी व राज्य को पुनः प्राप्त किया।
लीलावती ने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए, जीवन के अंतिम भाग में साध्वी व्रत अंगीकार किया और विशुद्ध चारित्र की आराधना कर सुगति प्राप्त की ।
लेतिकापिता (श्रावक )
भगवान महावीर और उन द्वारा प्ररूपित धर्म को आराध्य रूप में अंगीकार करने वाला एक जैन श्रावक ।
लेतिकापिता गाथापति श्रावस्ती नगरी का रहने वाला था । वह बहुत धनी था और किसी से भी पराभूत होने वाला नहीं था । उसके पास सोलह करोड़ मूल्य की चल-अचल सम्पत्ति थी । दस-दस हजार गायों के चार गोकुल उसके पास थे ।
लेतिकापिता गाथापति की पत्नी का नाम फाल्गुनी था जो सुरूपा और पतिव्रता थी ।
एक बार नगरी के बाह्य भाग में स्थित कोष्ठक चैत्य में भगवान महावीर पधारे। जनता भगवान के दर्शन करने और प्रवचन सुनने गई । लेतिकापिता भी भगवान के चरणों में उपस्थित हुआ। भगवान के दर्शन करके और उनकी वाणी को सुनकर लेतिकापिता को संबोधि की प्राप्ति हुई। उसने अपने बल और पुरुषार्थ को तोला। उसने स्वयं को अणगार धर्म को ग्रहण कर पाने में असमर्थ अनुभव किया। तब उसने भगवान से ••• जैन चरित्र कोश •
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