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शिकायत-भाव दूर हो गया परन्तु लकुच के प्रति उसके हृदय में प्रतिशोध की ज्वालाएं जलती ही रही, वह लकुच की धृष्टता को भुला नहीं पाया।
लकुच मुनि कुछ वर्षों तक गुरु के साथ रहे और ज्ञानाराधना करते रहे। जब वे गीतार्थ बन गए तो गुरु न उनको एकल विहार प्रतिमा की आज्ञा प्रदान की। एकाकी विहार करते हुए मुनि लकुच एक बार " उज्जयिनी नगरी में पधारे। महाकाल श्मशान में एक वृक्ष के नीचे ध्यान-लीन बन गए। संयोग से उधर से पंगुल सेठ गुजरा। उसने लकुच मुनि को ध्यान-मुद्रा में देखा। उसके हृदय में सुलगता प्रतिशोध अनुकूल अवसर पाकर दावानल बन गया। पंगुल ने दाएं-बाएं और आगे-पीछे देखा। जब वह विश्वस्त हो गया कि उसे कोई नहीं देख रहा है तो उसने लकुच मुनि की संधियों में कीले ठोक दिए और वहां से भाग खड़ा हुआ। ___मुनि प्राणान्तक वेदना से गुजरे पर उन्होंने अपने चिन्तन को राग-द्वेष से उन्मुक्त रखा। समभाव से देह का त्याग कर वे देवलोक में गए। भवान्तर में सिद्धि को प्राप्त करेंगे।
-बृहत्कथा कोष, भाग 1 (आ. हरिषेण) लक्खी बनजारा
(देखिए-चन्दन राजा) लक्ष्मण (वासुदेव)
अयोध्याधिपति महाराज दशरथ के पुत्र, सुमित्रा के अंगजात और मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के अनुज तथा अनन्य भक्त।जैन कथा साहित्य तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के अनुसार लक्ष्मण वर्तमान अवसर्पिणी काल के आठवें वासुदेव थे और उनके अग्रज श्री राम आठवें बलदेव थे। लक्ष्मण श्रीराम के अनन्य उपासक और आज्ञाकारी थे। क्रोध के क्षण में भी वे श्रीराम के आदेशों की अवहेलना नहीं करते थे। जैन रामायण के अनुसार राम रावण युद्ध में लक्ष्मण ने अद्भुत पराक्रम दिखाया और रावण के ही सुदर्शन चक्र से उसका वध किया।
श्रीराम के साथ चौदह वर्षों तक लक्ष्मण वन-दर वन उनके अनुगामी और सेवक बने रहे। निस्पृह भ्रातृ-पराभक्ति का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वन से लौटने पर श्रीराम के आदेश पर ही लक्ष्मण ने राजपद स्वीकार किया। तदनन्तर तीन खण्डों पर विजय पताका फहराकर लक्ष्मण वासुदेव के पद पर अभिषिक्त हुए।
वैदिक परम्परा में लक्ष्मण जति (यति) रूप में विशेष रूप से वन्दित हुए हैं। चौदह वर्षों तक वनवास काल में साथ रहकर भी लक्ष्मण की दृष्टि सीता के चरणों से ऊपर नहीं उठी थी। आगामी भव में लक्ष्मण संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
-त्रि.श.पु. चरित्र-पर्व (क) लक्ष्मणा
क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा महाराज वीरकेतु की पुत्री, एक अनिंद्य सुंदरी राजकुमारी। पुत्री के विवाह के लिए राजा ने स्वयंवर की रचना की जिसमें दूर-देशों के राजा और राजकुमार सम्मिलित हुए। राजकुमारी लक्ष्मणा ने सूर्यकान्त नामक राजकुमार के गले में वरमाला डालकर उसे अपने वर के रूप में चुना। बाद में विवाह मण्डप में विधिपूर्वक वर-वधू अग्नि के गिर्द प्रदक्षिणा करने लगे। विवाह सम्बन्धी मंत्रादि पूर्ण हुए। दुर्दैववश राजकुमार सूर्यकान्त का पैर फिसल गया और वह गिर पड़ा। राजवैद्य उपस्थित हुए। वैद्यों ने राजकुमार को मृत घोषित कर दिया। लक्ष्मणा विवाह होते ही विधवा हो गई । उस पर कष्ट का पहाड़ टूट पड़ा। पर - जैन चरित्र कोश ...
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