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ऐसी उन्नति हुई कि वह नगर का सबसे समृद्ध व्यक्ति बन गया। युवावस्था में लक्ष्मीपुंज का आठ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। उत्कृष्ट भोग सामग्री उसे सहज प्राप्त थी। ___एक दिन लक्ष्मीपुंज एकान्त कक्ष में बैठा हुआ अपनी पुण्यवानी पर चिन्तन कर रहा था कि वे कौन-से पुण्य कर्म हैं जिनके फलस्वरूप उसे बिना यत्न किए ही ऐसी समृद्धि प्राप्त हुई। जब वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया तो सहसा एक घटना घटी। उसका कक्ष दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठा। एक देव उसके समक्ष प्रकट हुआ। देव ने लक्ष्मीपुंज को प्रणाम किया। लक्ष्मीपुंज ने देव के प्रणाम करने का प्रयोजन
और उसका परिचय पूछा तो देव ने बताया, लक्ष्मीधर नामक नगर में एक सरल हृदयी गुणधर नामक व्यापारी रहता था। एक बार एक मुनि किसी व्यक्ति को अदत्त-त्याग के बारे में बता रहे थे। गुणधर उधर से गुजरा तो उसे मुनि दिखाई दिए। वह भी मुनि को प्रणाम कर उनके पास बैठ गया और उनका उपदेश सुनने लगा। मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर गुणधर ने भी अदत्त-ग्रहण का त्याग किया।
गुणधर व्यापारी था और उसका व्यापार दूर-देशों तक फैला था। एक बार गुणधर अपने सार्थ के साथ प्रदेश जा रहा था। वह स्वयं घोड़े पर सवार था और उसका सार्थ उसके पीछे-पीछे चल रहा था। संयोग कुछ ऐसा बना कि गुणधर सार्थ से बिछुड़ गया। वह विजन-वन में भटकने लगा। सहसा उसकी दृष्टि एक बहुमूल्य रलहार पर पड़ी। पर गुणधर के हृदय में उस हार के प्रति तिलमात्र भी आकर्षण नहीं जगा। वह आगे बढ़ा तो उसके घोड़े के खुर से एक स्वर्ण घट टकराया जो रत्नों से भरा हुआ था। पर गुणधर ने उस घट की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा। कुछ दूर जाने पर गुणधर का घोड़ा गिर पड़ा और मर गया। विजन वन में अपने एकाकी सहयोगी को मृत देखकर उसे बड़ा दुख हुआ। उसने पुकारकर कहा, कोई मेरे घोड़े को जीवित कर दे तो उसे मैं अपनी सारी सम्पत्ति दे दूंगा। पर उसकी पुकार असुनी ही सिद्ध हुई। वह स्वयं प्यास से व्याकुल था। पानी की तलाश में भटकते हुए वह एक वृक्ष के नीचे पहुंचा। वृक्ष की शाखा पर जल की एक मशक लटकी हुई थी। पर अदत्त का त्यागी बिना दिए जल कैसे ग्रहण करता। वह इधर-उधर देखने लगा। वृक्ष की एक अन्य शाखा पर लटके स्वर्ण-पिंजरे में बैठे एक तोते ने गुणधर से कहा, यह जल एक वैद्य का है जो जंगल में जड़ी-बूटियां लेने गया है। वह कब लौटेगा, कहा नहीं जा सकता है। परन्तु तुम चाहो तो जल ग्रहण कर सकते हो। गुणधर ने कहा, भले ही प्राण चले जाएं पर मैं अदत्त वस्तु ग्रहण नहीं करूंगा। प्यास की तीव्रता से गुणधर ने आंखें मूंद लीं।
सहसा सब दृश्य बदल गया। एक तेजस्वी युवक गुणधर के समक्ष उपस्थित था। उस युवक ने अपना परिचय देते हुए गुणधर से कहा कि वह सूर नामक विद्याधर है। उस दिन मुनि उसे ही चोरी के त्याग का उपदेश दे रहे थे। वे मुनि उसके संसार-पक्षीय पिता हैं। वह उसके अदत्त त्याग व्रत की परीक्षा लेने आया था। परीक्षा में वह शुद्ध स्वर्ण सिद्ध हुआ है। विद्याधर सूर ने बताया, उसी ने मार्ग में स्वर्णहार और स्वर्णघट रखा था, पर एक वणिक होते हुए भी आप अपने व्रत पर इतने सुदृढ़ रहे कि आपकी उस सुदृढ़ता ने मेरा जीवन भी रूपान्तरित कर दिया है। मेरे जीवन में चोरी का दुर्व्यसन था। आज से मैं उस दुर्व्यसन का परित्याग करता हूं। आपकी व्रत निष्ठा ने मेरा हृदय परिवर्तन किया है, अतः आप मेरे गुरु हैं। ऐसा कहकर विद्याधर ने विशाल धन सम्पत्ति गुणधर को भेंट की और उसका घोड़ा भी जीवित कर दिया। परन्तु गुणधर ने विद्याधर का दिया हुआ धन अस्वीकार करते हुए अपनी सारी सम्पत्ति विद्याधर के समक्ष प्रस्तुत कर कहा, अब मेरी इस सम्पत्ति पर आपका अधिकार है, क्योंकि मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि कोई मेरे घोड़े को जीवित कर दे तो मैं उसे अपनी सारी सम्पत्ति अर्पित कर दूंगा। दोनों परस्पर एक दूसरे को अपनी-अपनी सम्पत्ति देना चाहते ...जैन चरित्र कोश...
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