________________
ऐसी सूचना देकर लक्ष्मी अदृश्य हो गई। सेठ उदास हो गया । कठिनता से उसने रात्रि व्यतीत की । प्रातःकाल उसने अपने चारों पुत्रों, चारों पुत्रवधुओं और अपनी पत्नी को अपने पास बुलाया और सबके समक्ष रात्रि की घटना कही । क्षणभर के लिए सभी सदस्य चौंक गए। सेठ ने कहा, ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए यह सोचने का महत्वपूर्ण विषय है। शोक करना समुचित उपाय नहीं है। कोई ऐसा उपाय किया जाए कि विदा होती हुई लक्ष्मी को देखकर भी हम अपने धैर्य और साहस को बनाए रखें।
परिवार के सभी सदस्यों ने अपने-अपने सुझाव दिए । पर कोई भी सुझाव तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। आखिर परिवार की सबसे छोटी सदस्या - सेठ की छोटी पुत्रवधू ने एक सुझाव रखा। उसने कहा, पिताजी! यह तो सच है कि अब लक्ष्मी हमारे घर से विदा हो जाएगी, ऐसे में हमारी बुद्धिमत्ता इसी बात में है कि हमें स्वयं ही लक्ष्मी को अपने हाथों से विदा देनी चाहिए, अर्थात् आने वाले आठ दिनों में हमें अपनी सारी चल-अचल सम्पत्ति को दान-पुण्य में समर्पित कर देना चाहिए ।
लक्ष्मी की विदायगी की यह विधि परिवार के प्रत्येक सदस्य को उचित प्रतीत हुई। सेठ ने उसी दिन से अपना व्यापार समेट लिया और दोनों हाथों से दान देना शुरू कर दिया। आठ दिन व्यतीत होते-होते सेठ और उसके परिवार के सदस्यों के शरीर पर धारण करने वाले वस्त्रों के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं था । नगर जन सेठ और उसके परिवार की इस आत्यन्तिक उदारता 'देखकर चकित थे । सेठ की दानवीरता की कथा व्यक्ति-व्यक्ति के अधरों से उद्गीत बन रही थी ।
श्रेष्ठी परिवार ने नगर के बाह्य भाग में सार्वजनिक स्थल पर घास-फूस की एक झोंपड़ी डाल ली और सभी सदस्य मेहनत मजदूरी करके उदरपोषण करने लगे। सेठ और उसका परिवार अभाव में भी सन्तुष्ट
था।
सात दिन बीते ! रात्रि में पुनः लक्ष्मी प्रगट हुई। उसने सेठ से कहा, सेठ जी ! इन सात दिनों में मैं अनेक स्थानों पर भटकी, पर तुम्हारे घर मुझे जो सम्मान और सदुपयोग प्राप्त हुआ, वैसा कहीं नहीं मिला। मुझे आज्ञा दें, मैं फिर से आपकी सेवा में आना चाहती हूं। सेठ ने लक्ष्मी का स्वागत किया। देखते ही देखते सेठ - मोतीचन्द्र पुनः लक्ष्मीपति बन गए ।
मोरध्वज
वाराणसी नगरी का रहने वाला एक दृढ़धर्मी श्रावक। महामंत्र नवकार पर उसकी अगाध आस्था थी । धर्म में वह आगे था पर धन उसके पास अधिक नहीं था। उसका एक पुत्र था, जिसका नाम प्रधीकुमार था । निर्धनता के कारण प्रधीकुमार को अपने समृद्ध श्रेष्ठि- पुत्र मित्रों के समक्ष अक्सर हीन सिद्ध होना पड़ता । आत्महीनता के भाव उसके मन में प्रवेश कर गए। वह उदास रहने लगा। पिता ने पुत्र की उदासी को देखा और उसके मन की थाह को पाया। मोरध्वज ने पुत्र को महामंत्र नवकार स्मरण कराया और उसकी अनन्त महिमा उसको बताई । पर महामंत्र सीख लेने पर भी धनी मित्रों में वह समानता का अधिकार प्राप्त नहीं कर सका। पुत्र की उदासी से पिता भी उदास हो गया। उसने पुत्र को महामंत्र की महिमा का दर्शन कराने के लिए तेल किया । देव प्रगट हुआ। मोरध्वज ने देव से तीन दिन के लिए चिन्तामणि रत्न की याचना की । तदनन्तर उसने पुत्र को अपने पास बुलाया और उसे बताया कि महामन्त्र के चमत्कार से ही उसे यह रत्न प्राप्त हुआ है जो संसार की बड़ी से बड़ी समृद्धि दे सकता है।
प्रधीकुमार चिन्तामणि रत्न को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसके प्रभाव से उसे बहत्तर कोठे मोतियों *** जैन चरित्र कोश •••
♦♦♦ 466