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रत्नशिख
प्राचीनकालीन एक युवा नरेश जो नन्दीपुर नगर का राजा था। वह एक जिज्ञासु राजा था। कथा और काव्य से उसका विशेष लगाव था। नई-नई कथाएं सुनकर उसे बड़ा सुख मिलता था। पर वह केवल श्रवण-रसिक ही नहीं था, बल्कि कथा-कहानी से उसे जो आदर्शामृत प्राप्त होता उसके अनुसार वह जीवन जीने का भी यत्न करता था ।
एक बार एक सत्यकथा सुनकर रत्नशिख के हृदय में देशाटन करके भाग्य परीक्षा करने का संकल्प जगा। क्योंकि उसने जो सत्यकथा सुनी थी उसका कथ्य यही था कि शूरवीर पुरुष वह होता है जो वंश परम्परा से प्राप्त ऐश्वर्य से आंखें मूंदकर अपने पुरुषार्थ से अपना भाग्य लिखता है । रत्नशिख ने अपने कुशल व विश्वस्त मंत्रियों को राज्य भार प्रदान कर देशाटन किया। उसके मार्ग में अनेक बाधाएं आईं, पर कर्मयोगियों के लिए तो बाधाएं भी उनकी यात्रा को गति देने वाली ही सिद्ध होती हैं । रत्नशिख ने अपने पुरुषार्थ और भाग्य बल से अपार समृद्धि अर्जित की, पर्याप्त सुयश पाया और अनेकों सुन्दर कुमारियों से उसने पाणिग्रहण किया ।
रत्नशिख ने अनेक वर्षों तक देवदुर्लभ राजसुख का उपभोग किया। बाद में उसने अपने पुत्र को राजपद देकर श्रामणी दीक्षा ग्रहण की। निरतिचार चारित्र की अराधना से सर्वकर्म खपा कर वह मोक्ष में गया ।
- पुहवीचंद चरियं
रत्नशिखर
प्राचीनकालीन रत्नपुरी नगरी का एक धर्मनिष्ठ राजा। उसके मंत्री का नाम सुमति था जो सच में ही सुमति का निधान था। राजा और मंत्री में परस्पर प्रगाढ़ मैत्री थी । किसी समय राजा और मंत्री वन-विहार के लिए वन में गए। एक वृक्ष की शीतल छाया में बैठकर वे विश्राम करने लगे । वृक्ष पर एक शुक-युगलं परस्पर चर्चा कर रहा था । शुक ने मादा शुक से कहा, इस पृथ्वी पर रत्नवती नाम की अनिंद्य सुंदरी राजकन्या है। विवाह योग्य आयु में पहुंचकर भी वह विवाह के लिए तैयार नहीं है । आज तक उसने किसी पुरुष की ओर आंख तक उठा कर नहीं देखा है। हां, रत्नशिखर जैसा कोई पुरुष राजकुमारी के समक्ष जाए तो निश्चित ही राजकुमारी उस पर मुग्ध बनकर उसे अपने वर के रूप में स्वीकार कर लेगी। इस वार्ता के साथ ही शुकयुगल वहां से अन्यत्र उड़ गया ।
राजा और मंत्री पक्षियों की भाषा को समझते थे । रत्नवती का नाम कानों में पड़ते ही किसी अदृश्य आकर्षण में राजा बंध गया। राजा और मंत्री नगर में लौट आए। परन्तु राजा रत्नवती को हृदय से नहीं निकाल सका। दिन-रात वह उसी की स्मृतियों और कल्पनाओं में उतरता तैरता रहता । निरन्तर निराशा ने उसे रुग्ण बना दिया। आखिर मंत्री सुमति से राजा की चिन्ता-व्यथा छिपी न रह सकी। उसने प्रण किया कि वह सात मास की अवधि में रत्नवती को खोज निकालेगा और साथ ही उसके हृदय में अपने महाराज के लिए अनुराग जगा देगा । दृढ़ प्रतिज्ञा करके मंत्री चल दिया । अलक्ष्य दिशाओं में यात्रा करते हुए मंत्री सुमति एक बार एक विजन वन से निकल रहा था। वहां उसे एक सुन्दर युवती दिखाई दी। युवती का नाम लक्ष्मी था और वह एक यक्ष-यक्षिणी के संरक्षण में जंगल में रहती थी । यह यक्ष और यक्षिणी पूर्वजन्म में सद्गृहस्थ थे और लक्ष्मी उनकी पुत्री थी । मृत्यु के पश्चात् अकेली रह गई लक्ष्मी को वे अपने स्थान पर ले आए थे। यक्ष ने सुमति से भेंट की और उसे अपनी पुत्री के सर्वथा योग्य मानकर उसके साथ पुत्री का विवाह कर दिया। सुमति ने अपनी यात्रा का उद्देश्य यक्ष को बताया तो यक्ष ने अपने ज्ञान से रत्नवती का परिचय जान ••• जैन चरित्र कोश
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