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रत्नचूड़
ताम्रलिप्ति नगरी के धनकुबेर श्रेष्ठी मणिचूड़ का पुत्र, एक सौभाग्य और बुद्धि का निधान युवक। दान, दया और धर्म पर रत्नचूड़ की अविचल श्रद्धा थी। उसके पास पिता द्वारा अर्जित अपार धन था, पर
अपने पौरुष की परीक्षा के लिए उसने व्यापार के लिए दूर देशों की समुद्री यात्राएं कीं और काफी धन कमाया। यात्रा में उसके समक्ष अनेक प्रकार के कष्ट आए पर समस्त कष्टों को पार करके उसने अपने संकल्प को १ . सुदृढ़ बनाया। उसने तीन विवाह किए। सुख पूर्वक जीवन यापन करते हुए आयुष्य के अंतिम भाग में रत्नचूड़
अपनी तीनों पत्नियों के साथ प्रव्रजित हुआ। चारित्र का पालन कर चारों भव्य जीव स्वर्ग में गए। कालक्रम से सर्वकर्म खपाकर सिद्ध होंगे। रत्नद्वीपा देवी
रत्नद्वीप की स्वामिनी एक देवी। (देखिए-जिनपाल) रत्नपाल
पुरिमताल नगर के कोटीश्वर सेठ जिनदत्त की अर्धांगिनी भानुमती का अंगजात। रत्नपाल के जन्म से पहले जिनदत्त पर लक्ष्मी की जितनी कृपा थी उसके जन्म के पश्चात् उतनी ही वह कुपित भी बन गई। रत्नपाल के मातृगर्भ में आते ही जिनदत्त की लक्ष्मी नष्ट होने लगी। गर्भकाल के सप्तम मास में स्थिति यह बनी कि 'साध पुराई' के उत्सव के लिए भी जिनदत्त के पास धन नहीं बचा। कुल की प्रतिष्ठा के लिए यह उत्सव आवश्यक था। जिनदत्त पूरे नगर में घूमने पर भी धन का प्रबन्ध नहीं कर पाया। आखिर अपने बालसखा मन्मन सेठ के पास पहुंचा और 'साध पुराई' के लिए एक हजार मुद्राएं कर्ज स्वरूप मांगीं। पर मन्मन ठहरा लक्ष्मी का पुजारी। धन उसे प्राणों से अधिक प्रिय था। उसने धन के बदले में किसी वस्तु को गिरवी रखने के लिए जिनदत्त से कहा। पर जिनदत्त के पास तो ऐसी कोई वस्तु शेष थी ही नहीं जिसे वह गिरवी रख सके। आखिर उसने अपने अजन्मे पुत्र को ही मन्मन के पास गिरवी रख दिया। मन्मन निःसन्तान था। उसने प्रसन्न चित्त से यह सौदा कर लिया और पंचों के समक्ष इस संदर्भ के पक्के कागज तैयार करवा लिए। तय किया गया कि जिनदत्त का पुत्र जवान होकर अपने श्रम से जब एक हजार स्वर्णमुद्राएं कमा कर मन्मन सेठ को देगा तभी वह अपने माता-पिता के पास जा सकता है।
जिनदत्त ने अपने पुत्र का नाम रत्नपाल रखा और उसे मन्मन सेठ को सौंप दिया। अपयश से बचने के लिए रात्रि में जिनदत्त अपनी पत्नी के साथ पुरिमताल नगर को छोड़कर निकल गया। दूर देश के वसन्तपुर नगर में जाकर वह लकड़हारे का जीवन जीने लगा। वर्षा ऋतु आई तो वन में सूखी लकड़ियों का अभाव हो गया। हरी लकड़ी न काटने का जिनदत्त को नियम था। फलतः उसे कई-कई दिन तक बिना भोजन के ही रहना पड़ा। एक दिन गहन वन में घूमते हुए जिनदत्त को बावना चन्दन का सूखा वृक्ष मिल गया। पर दुर्दैववश जिनदत्त पहचान न सका कि वह बावना चन्दन है। भार बनाकर वह नगर में गया। नगर में धनदत्त नामक एक धूर्त व्यापारी की दृष्टि जिनदत्त के भार पर पड़ी। वस्तुस्थिति समझते उसे एक पल न लगा और धार्मिकता का स्वांग रच कर सोलह मेंमुदी (तत्कालीन एक रुपए से भी कम पैसे) में वह बावनाचन्दन उसने खरीद लिया। साथ ही धनदत्त ने वाग्जाल फैलाकर जिनदत्त को इस बात के लिए अनुबन्धित कर लिया कि वह
अपनी लकड़ियों को केवल उसे ही बेचेगा। जिनदत्त ने इसे सेठ की धर्मवृत्ति ही माना। वह इस बात से प्रसन्न था कि उसे बाजारों में घूम-फिर कर लकड़ियां नहीं बेचनी पड़ेंगी तथा अधिक मूल्य भी प्राप्त होगा। ... 480
, जैन चरित्र कोश ...