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फंस गया और निकल न सका। उधर कमठ मरकर कुक्कुट जाति का सर्प बना। वह सर्प आकाश में उड़ने में समर्थ था। पूर्व वैर वश वह सर्प उस स्थान पर आया जहां हाथी कीचड़ में धंसा हुआ था। उसने हाथी को मस्तक और उदर पर दंश लिया। धर्म चिन्तन में लीन रहते हुए हाथी प्राणोत्सर्ग करके सहस्रार देवलोक में देव बना। यथासमय सर्प भी आयुष्य पूर्ण कर पांचवें नरक में उत्पन्न हुआ।
मरुभूति का जीव देवायु पूर्ण कर वैताढ्य पर्वत पर स्थित तिलका नामक नगरी के महाराज विद्युद्गति की रानी कनकतिलका की कुक्षी से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ जहां उसका नाम किरणवेग रखा गया। किरणवेग के युवा होने पर महाराज ने उसे राजपद देकर आर्हती दीक्षा धारण कर ली। किरणवेग की पद्मावती नामक रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम किरणतेज रखा गया। किरणतेज जब युवा हुआ तो किरणवेग ने उसे राज्य का भार प्रदान कर मुनि-दीक्षा धारण कर ली। उग्र तप की आराधना करते हुए मुनि किरणवेग एकल विहार प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगे। उधर कमठ का जीव नरकायु पूर्ण कर एक भयानक विषधर सर्प बना। किसी समय मुनि किरणवेग को देखकर पूर्व-वैर भाव के जागृत होने से उस सर्प ने मुनि किरणवेग को डस लिया। धर्मध्यान पूर्वक आत्मचिन्तन में लीन रहते हुए मुनि ने देहोत्सर्ग किया और वे बारहवें स्वर्ग में देव बने। सर्प आयुष्य पूर्ण कर नरक का अधिकारी हुआ।
देव गति का आयुष्य पूर्ण कर के मरुभूति का जीव पश्चिम महाविदेह स्थित शुभंकरा नामक नगरी के राजा वज्रवीर्य की महारानी लक्ष्मीवती के गर्भ से पुत्र के रूप में जन्मा। युवावस्था में वह राजा बना। उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम चक्रायुध रखा गया। ढ़लती उम्र में महाराज वज्रनाभ ने पुत्र को राज्याधिकार देकर आर्हती प्रव्रज्या धारण कर ली। उधर कमठ का जीव नरक से निकलकर कुरंगक नाम का भील बना। एक बार ध्यानस्थ मुनि वज्रनाभ को उसने देखा। देखते ही उसका वैरभाव जागृत बन गया। बाण के प्रहार से उसने मुनि का प्राणान्त कर दिया। समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग करके मुनि ग्रैवेयक स्वर्ग में ललितांग नामक महर्द्धिक देव बने। कालान्तर में काल करके कुरंगक भील सातवीं नरक में गया।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पोतनपुर नाम का एक नगर था। वहां पर कुलिशबाहु नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सुदर्शना था। मरुभूति का जीव देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर रानी सुदर्शना की कुक्षी में उत्पन्न हुआ। रानी ने चौदह महास्वप्न देखे जो इस बात के प्रतीक थे कि जन्म लेने वाला पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् होगा। कालक्रम से रानी ने पुत्र को जन्म दिया। नाम रखा गया सुवर्णबाहु। युवावस्था में सुवर्णबाहु राजा बना और बाद में छह खण्डों को साधकर चक्रवर्ती सम्राट् बना। ____ गालव मुनि के आश्रम में सुवर्णबाहु ने विद्याधर नरेश विद्याधरेन्द्र की अरण्यवासिनी पुत्री पद्मावती से पाणिग्रहण किया। पद्मावती ही सुवर्णबाहु की पटरानी बनी। ___एक बार तीर्थंकर श्री जगन्नाथ जी की धर्मदेशना सुनते हुए महाराज सुवर्णबाहु को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वे राजपाट का त्याग कर के मुनि बन गए और उग्र तपश्चरण करते हए विचरने लगे। बीस बोलों की उत्कृष्ट आराधना से उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। ___उधर कमठ का जीव कुरंगक भील के भव से नरक में गया और नरक से निकलकर सिंह बना। किसी समय उस सिंह ने महामुनि सुवर्णबाहु को देखा और पूर्व वैर के कारण मुनि पर झपट पड़ा। समाधिमरण प्राप्त कर मुनि प्राणत देवलोक में देव बने और कालक्रम से सिंह मरकर चतुर्थ नरक में गया।
बीस सागरोपम का प्रलम्ब और सुखपूर्ण आयुष्य पूर्ण कर सुवर्णबाहु (मरुभूति) का जीव वाराणसी नरेश महाराज अश्वसेन की रानी वामादेवी की रत्नकुक्षी से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वहां पर उसे पार्श्वकुमार ... 420
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