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श्रेष्ठि पुत्र माथुर ने यौवन में कदम रखा ही था कि उसके पिता का देहान्त हो गया। चार दिनों में ही उसकी सारी संपत्ति भी नष्ट हो गई। उसके घर में रखे स्वर्णथाल आकाश में उड़ गए। एक थाल को माथुर ने पकड़ लिया। परन्तु उस थाल का किनारा उसके हाथ में रह गया और थाल उड़ गया। इस विचित्र स्थिति से माथुर वणिक विरक्त होकर मुनि बन गया। स्वर्ण आसक्ति वश थाल का टूटा हुआ टुकड़ा उसने अपने पास छिपाकर रख लिया। एक बार वह मुनि उत्तर मथुरा आया और संयोग से भिक्षार्थ एक वणिक के घर में गया। वहां सेठ की पुत्री और सेठ स्वर्णथालों में भोजन कर रहे थे। सेठ के समक्ष खण्डित थाल देखकर मुनि पहचान गए कि वह उसी के घर का थाल है। सेठ के पूछने पर मुनि ने पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी और टूटा हुआ स्वर्णथाल का खण्ड श्रेष्ठी को दे दिया। सेठ के पूछने पर मुनि ने अपना परिचय दिया। सेठ गद्गद बनकर उठ खड़ा हुआ और बोला, आप ही मेरे दामाद हैं, मेरे मित्र के पुत्र हैं। मेरी यह पुत्री और मेरा यह सब धन आपका ही है। इसे ग्रहण करें। मुनि ने निस्पृह भाव से कहा, कभी मनुष्य कामभोगों को छोड़ता है और कभी कामभोग मनुष्य को छोड़कर चले जाते हैं। इस रहस्य-सूत्र को पाकर मैं अकाम की साधना में संलग्न हूं। वापिस लौटना असंभव है। कहकर मुनि चले गए। उच्च साधना द्वारा परम पद के अधिकारी बने।
-धर्मोपदेश माला, विवरण कथा 16 माधव तृतीय ___गंग वंशीय एक राजा जिसका जीवन जैन संस्कारों से ओत-प्रोत था। जैन शिलालेख संग्रह के अनुसार-माधव तृतीय कलियुग के कीचड़ में फंसे हुए धर्मरूपी वृषभ का उद्धार करने वाला राजा था।
माधव तृतीय का शासन काल ई. स. 357 से 370 तक का मान्य है। माधव मुनि जी (आचार्य)
काव्य की अन्तरात्मा को शब्द देह में प्रतिष्ठित करने वाले एक स्थानकवासी जैन आचार्य।
आपका जन्म वि.सं. 1928 को भरतपुर के निकटस्थ ग्राम ओंढ़ेरा में हुआ। ब्राह्मण वंशीय श्रीमान बंशीधर आपके जनक और श्रीमती रायकुंवर आपकी जननी थी। जब आप छोटे ही थे तो माता-पिता का निधन हो गया। बूआ ने आपका पालन-पोषण किया। वि.सं. 1940 में आपने अजमेर नगर में श्री मेघराज जी महाराज के श्री चरणों में दीक्षा धारण की। छह माह बाद ही गुरुदेव का स्वर्गवास हो गया। गुरुदेव के गुरुभ्राता श्री मगन मुनि जी महाराज के सान्निध्य में रहकर आपने संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं और जैन-जैनेतर दर्शनों का गंभीर अध्ययन किया। वि.सं. 1979 में आप आचार्य पाट पर विराजमान हुए। 53 वर्ष की अवस्था में जयपुर से जोधपुर जाते हुए मार्ग में पद्मासन ध्यानमुद्रा में आपका स्वर्गवास हुआ।
आप एक विद्वान जैन आचार्य एवं कमनीय काव्यकार थे। आप द्वारा रचित रचनाओं-स्तुतियों में शब्द सौष्ठव और माधुर्य रस का अनुपम संयोजन है। आप द्वारा रचित पदों / स्तुतियों को गाते हुए लोग भक्ति रस के अतल में गोते लगाने लगते हैं। 'सेवो सिद्ध सदा जयकार' आप द्वारा रचित एक ऐसी ही स्तुति है जो समग्र जैन जगत में कण्ठहार बनी हुई है। मानतुंग (आचार्य)
___ एक विद्वान जैन आचार्य। संस्कृत भाषा के वे उत्कृष्ट पण्डित और भक्ति रस के अमर और विलक्षण कवि थे। आचार्य मानतुंग का जन्म वाराणसी नगरी में एक जैन परिवार में हुआ था। उनके पिता धनदेव एक जैन श्रावक थे। मानतुंग की एक बहन थी जिसका विवाह लक्ष्मीधर श्रेष्ठी के साथ हुआ था। ... जैन चरित्र कोश ...
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