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रहा। मृगसुंदरी को अपने प्राणों से भी अपने व्रत प्रिय थे। रात्रि-भोजन त्याग और जिन स्तवन व्रत का तो वह पालन कर रही थी पर मुनियों को प्रतिलाभित वह नहीं कर पा रही थी। इसीलिए उसने कई दिनों तक भोजन ग्रहण नहीं किया। एक दिन उसे एक मुनि के दर्शन हुए। उसने मुनि के समक्ष अपनी समस्या रखी। मुनि ने मृगसुंदरी को विकल्प बताया कि वह चूल्हे पर चंदोवा बांधकर रसोई बनाए, उससे वह असंख्य त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा कर पाएगी और उससे उसे वही पुण्य लाभ होगा जो मुनियों को प्रतिलाभित करने पर प्राप्त होता है।
मृगसुंदरी ने घर आकर वैसा ही किया। उससे उसके श्वसुर पक्ष के समस्त सदस्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ा। मृगसुंदरी ने बहुविध उपायों से परिवारजनों को समझाने का यत्न किया कि वह जीवरक्षा का उपक्रम है पर परिवार जन समझे नहीं। उन्होंने उसे मृगसुंदरी द्वारा किया गया जादू-टोना ही माना। धनेश्वर ने चूल्हे पर बन्धे चन्दोवे को जला डाला। दूसरे दिन मृगसुंदरी ने दूसरा चन्दोवा बांधा। धनेश्वर ने उसे भी जला दिया। निरन्तर सात दिनों तक मृगसुंदरी चन्दोवा बांधती रही। धनेश्वर प्रतिदिन उसे जलाता रहा। आखिर मृगसुंदरी को जिद्दी और टोना करने वाली घोषित करके श्वसुर-परिवार ने उसे उसके घर भेजने का निर्णय कर लिया। मृगसुंदरी ने श्वसुर से प्रार्थना की कि उसे जिस विधि से ससम्मान विवाहित कर लाया गया था उसी विधि से उसे उसके पीहर भेजा जाए। श्वसुर ने विवश होकर उसकी बात मान ली।
दूसरे दिन परिवार के समस्त सदस्यों और अनेक दास-दासियों के साथ कई वाहनों पर सवार होकर देवदत्त मृगसुंदरी को उसके पीहर पहुंचाने के लिए गया। मार्ग में संध्या हो गई। एक गांव में देवदत्त का सम्बन्धी रहता था। पूरा काफिला उस सम्बन्धी का अतिथि बना। रात्रि घिर चुकी थी। मेजबान ने भोजन बनवाया। सर्वप्रथम मृगसुंदरी के लिए ही भोजन परोसा गया। पर मृगसुंदरी ने अपने नियम की बात कहकर भोजन अस्वीकार कर दिया। देवदत्त और उसके परिजनों को भी मृगसुंदरी का अनुसरण करना पड़ा। सो उन्होंने भोजन नहीं किया। आखिर दास-दासियों को भोजन कराया गया। रात्रि बीती। प्रभात हुआ। सभी लोग सोकर उठे। पर वे दास-दासी नहीं उठे जिन्होंने रात्रि में भोजन किया था। उन सबकी मृत्यु हो चुकी थी। रहस्य खुलते-खुलते खुला कि भोजन विषाक्त था जिसके कारण दास-दासियों की मृत्यु हुई। शाक का निरीक्षण किया गया। उसमें सर्प के शरीर का टुकड़ा पाया गया। मृगसुंदरी ने स्पष्ट किया, भोजन बनाते हुए छत से सांप भोजन-पात्र में गिरा जिससे भोजन विषाक्त हो गया। साथ ही मृगसुंदरी ने अपने परिजनों को चंदोवे और रात्रि भोजन त्याग के महत्व को भी समझाया। उचित समय की बात ने धनेश्वर और उसके पूरे परिवार की आंखें खोल दी। सभी ने मृगसुंदरी के नियमों का महत्व जाना और उसी क्षण सभी ने रात्रि-भोजन त्याग का नियम ले लिया।
यात्रा शुरू हुई। पर यह यात्रा मृगपुर के लिए न थी, वसंतपुर लौटने के लिए थे। मृगसुंदरी का मान सम्मान बढ़ गया। धनेश्वर तो पूर्णरूप से पत्नी का अनुगामी और सहचर बन गया। उसने जिनधर्म अंगीकार कर लिया। पूर्ण निष्ठा से धर्ममय जीवन जीकर पति-पत्नी देह-त्यागकर स्वर्ग में गए। स्वर्ग से च्यव कर धनेश्वर का जीव श्रीपुर नरेश श्रीषेण का पुत्र देवराज बना। युवावस्था में देवराज को कुष्ठ रोग हो गया। समस्त उपचार विफल हो गए। तब राजा ने घोषणा कराई कि जो भी नर-नारी राजकुमार देवराज को रोगमुक्त. करेगा उसे आधा राज्य दिया जाएगा।
मृगसुंदरी श्रीपुर नगर के सेठ यशोदत्त की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थी जहां उसका नाम लक्ष्मीवती रखा गया था। लक्ष्मीवती ने पटह का स्पर्श किया। उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। लक्ष्मीवती के ...जैन चरित्र कोश...
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