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सेंक रहे थे। मुग्धभट्ट अपने पुत्र को गोद में लिए उधर आया और अग्नि सेंकने लगा। इस पर वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने उसके साथ अछूतों का सा व्यवहार किया। मुग्धभट्ट के पूछने पर ब्राह्मणों ने कहा, तुम ब्राह्मणधर्म से च्युत हो चुके हो और ब्राह्मण-धर्म से च्युत व्यक्ति अस्पृश्य ही हो सकता है।
मुग्धभट्ट ने ब्राह्मणों को जिनधर्म की महिमा बतानी चाही। पर ब्राह्मण उसे सुनने को भी तैयार नहीं हुए। उन्होंने जिनधर्म की निन्दा की और ब्राह्मण-धर्म को ही सच्चा धर्म निरूपित किया। इससे मुग्धभट्ट के भीतर भी प्रतिस्पर्धा का भाव उत्पन्न हो गया। वह बोला, जिनधर्म निन्दनीय नहीं है। वह शुद्ध आत्मधर्म है। " उसको धारण करने वाला निन्दादि दोषों से मुक्त हो जाता है। जिनधर्म की ऐसी महिमा है कि उससे अकल्प्य
और अचिन्त्य सहज और कल्प्य हो जाता है। ब्राह्मणों ने कहा, ऐसा है तो जिनधर्म की महिमा को सिद्ध करके दिखाओ।
मुग्धभट्ट ने कहा, क्यों नहीं! अवश्य ही मैं तुम्हें जिनधर्म की महिमा सिद्ध करके दिखाऊंगा। कहकर मुग्धभट्ट खड़ा हो गया। फिर उसने घोषणा की, मैं अपने पुत्र को अग्नि में अर्पित करता हूं, यदि जिनधर्म सच्चा होगा तो अग्नि शान्त हो जाएगी। कहकर मुग्धभट्ट ने अपने पुत्र को अग्नि में डाल दिया। शासन देवी ने तत्क्षण अदृश्य रूप से उपस्थित होकर ब्राह्मण-पुत्र की रक्षा की और अग्नि को शान्त कर दिया।
इस चामत्कारिक घटना से शालीग्राम के ब्राह्मण चमत्कृत हो गए। सभी ने जिनधर्म की महिमा को एकमत से स्वीकार कर लिया। इससे मुग्धभट्ट का यश भी सर्वत्र फैल गया। मुग्धभट्ट घर गया। वस्तुस्थिति से परिचित बनकर उसकी पत्नी सुलक्षणा ने उसे समझाया कि उसे चमत्कार-प्रदर्शन की भावना नहीं रखनी चाहिए। उसके दुष्परिणाम भी संभव हैं।
मुग्धभट्ट ने तत्वज्ञा पत्नी की बात को हृदयंगम किया और पूरी श्रद्धा से धर्माराधना में तल्लीन बन गया। कालक्रम से उसका पुत्र युवा हुआ। मुग्धभट्ट पुत्र को गृहदायित्व प्रदान कर प्रभु अजितनाथ के चरणों में प्रव्रजित हो गया। सुलक्षणा ने भी प्रव्रज्या धारण की। निरतिचार संयम की आराधना द्वारा दोनों ने कैवल्य लाभ अर्जित किया और मोक्ष प्राप्त किया।
-आचार प्रदीप / त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र / जैन कथा रत्नकोष, भाग 6 मुचंद सेठ __चम्पा नगरी का धनी श्रेष्ठी। एक बार उसके घर एक मुनि भिक्षा के लिए आए। ग्रीष्म ऋतु थी। मुनि पसीने से तर थे। अस्नान के भीष्म व्रती होने से मुनि के शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी। मुचंद सेठ ने मुनिवर को भिक्षा तो दी पर दुर्गन्ध से उसने मुंह-नाक सिकोड़ लिए। मुनि के जाने के बाद वह सोचने लगा, जैन मुनि तपस्वी हैं, पर इनका अस्नान व्रत घृणित है। अस्नान व्रत की मन ही मन उसने तीव्र निन्दा की जिसके फलस्वरूप उसने निकाचित कर्मों का बन्ध किया। कालान्तर में आयुष्य पूर्ण कर मुचंद का जीव कौशाम्बी नगरी में एक व्यापारी के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। यहां पर उस द्वारा बांधा गया निकाचित कर्म उदय में आया। जन्म से ही उसके शरीर से महादुर्गंध प्रकट होती थी। उसकी जन्मदात्री मां भी उससे घृणा करने लगी। बड़े होने पर उसे अपनी स्थिति का बोध हुआ। उसने जाना कि वह सभी की घृणा का पात्र है और कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता है। इससे उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। वह आत्महत्या करने के संकल्प के साथ वन में चला गया। वहां एक साधु के उपदेश से उसे आत्मबोध की प्राप्ति हुई। उसने दीक्षा धारण कर ली और संकल्प किया कि वह भिक्षा के लिए बस्ती में नहीं जाएगा। वन में ही एषणीय आहार की प्राप्ति होगी तो आहार ग्रहण करेगा अन्यथा उपवासी रहेगा। ... 446
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