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लिया। कदम-दर-कदम उपसर्गों ने प्रभु के मार्ग को रोका, पर अप्रतिबद्ध विहारी महावीर आगे और आगे बढ़ते रहे। शूलपाणियक्ष, चण्डकौशिक नांग, कटपूतना, संगम देव-ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने प्रभु को मारणान्तिक उपसर्ग दिए। संगम देव छह मास तक प्रभु के साथ देहच्छायावत् जुड़ा रहा। प्रभु की समता को खण्डित करने के लिए उसने अपनी समग्र देव शक्ति लगा दी। पर वह सफल नहीं हुआ। एक ग्वाले ने प्रभु के कानों में कीलें ठोक दीं। पर प्रभु की समता अखण्ड बनी रही। कठिन अभिग्रह धारण कर प्रभु ने चन्दनबाला का उद्धार किया। प्रभु ने इन्द्र के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया कि साधनाकाल में वह उनकी सेवा में रहेगा। प्रभु का चिंतन था-कैवल्य की साधना किसी के कन्धे को सहारा बनाकर नहीं साधी जा सकती है। उसके लिए अपना पुरुषार्थ ही अपेक्षित होता है।,
साढ़े बारह वर्षों की दुर्धर्ष साधना के पश्चात् भगवान सर्व कर्म-कल्मष से उन्मुक्त बन गए। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन ऋजुवालिका नदी के तट पर गोदुहिका आसन में ध्यान लीन प्रभु की आत्मा में कैवल्य का महासूर्य उदित हो गया। उसके पश्चात् प्रभु ने जगत कल्याण के लिए धर्म तीर्थ की स्थापना की। गौतम स्वामी प्रभु के प्रथम शिष्य और चन्दनबाला प्रथम शिष्या बनी। महावीर शीघ्र ही भारतवर्ष के पूज्य बन गए। अनेकों राजाओं ने प्रभु को अपना धर्म गुरु स्वीकार किया। अनेकों राजाओं, राजकुमारों, राजकुमारियों, राजमहिषियों ने प्रभु के पास दीक्षा ली। ब्राह्मण और शूद्र, पुण्यात्मा और पापात्मा, छोटे और बड़े, धनी और निर्धन, प्रभु के लिए सब समान थे। प्रभु ने कभी किसी धर्म सम्प्रदाय की निन्दा नहीं की। उन्होंने अपनी बात जग के समक्ष रखी, जिसे सुन और अंगीकार कर लाखों भव्यजन भवसागर से तैर गए।
कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में पावापुरी नगरी में प्रभु मोक्ष में चले गए। उनकी कुल आयु बहत्तर वर्ष थी, जिसमें से तीस वर्ष तक वे गृहवास में रहे, शेष साढ़े बयालीस वर्षों तक श्रमणपर्याय में रहे। प्रभु के निर्वाण का उत्सव देवताओं और उपस्थित राजाओं व श्रावकों ने रत्नों के प्रकाश से प्रकाशित रात्रि में मनाया। वह दिन दिवाली के रूप में आज भी जैन जगत में दीपमालाएं प्रज्ज्वलित कर तथा त्याग-तप पूर्वक मनाया जाता है।
-कल्पसूत्र /-आचारांग अध्ययन 9/-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र महाशतक श्रावक
भगवान महावीर का एक अग्रगण्य श्रावक और राजगृह नगर का एक प्रमुख धनाधीश। उसके पास चौबीस करोड़ स्वर्णमुद्राएं तथा दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल थे। रेवती आदि उसकी तेरह पलियां थीं। प्रचुर सुख साधन होते हुए भी वह सादा जीवन एवं उच्च विचार के सिद्धान्त का अनुगामी था। उसने भगवान महावीर से श्रावक धर्म अंगीकार किया था। उसने आजीवन अपने व्रतों की विशुद्ध मन से परिपालना की। उसकी प्रमुख पत्नी रेवती जो एक धनी पिता की पुत्री थी अत्यन्त महत्वाकांक्षी और लोलुप थी। वह गुप्त रूप से मद्य और मांस का सेवन करती थी। तामसिक आहार से उसकी वासना अत्यन्त प्रबल बन गई थी। पति का पूर्ण प्रेम अकेली ही पाने के लिए उसने अपनी छह सपलियों को विष प्रयोग से तथा छह को शस्त्र प्रयोग से मार दिया। उसने यह कार्य इतनी चालाकी से किया कि कोई उस पर आशंका तक न कर सका। मार्ग के कंटकों को मिटा कर वह पूर्ण रूप से स्वच्छन्द बन गई। किसी समय महाराज श्रेणिक ने अपनी राजधानी में पञ्चेन्द्रिय वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया। रेवती के लिए ये कठिन क्षण थे। मांस के बिना वह रह नहीं सकती थी। उसने एक मार्ग खोजा। विश्वस्त अनुचर से वह अपने पिता की गोशाला से दो बछड़े मरवा कर प्रतिदिन मंगाने लगी। इस बात का पता महाशतक को लगा तो उसे रेवती के प्रति अत्यधिक घृणा हो गई। जब तब रेवती महाशतक के पास आती। महाशतक उससे आंखें फेर लेता। उक्त ...434
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