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उधर एक मत्स्य की पीठ पर सवार होकर भीमसेन किनारे पर आ लगा। आगे की यात्रा में भीमसेन ने कई अन्य राजपुत्रियों से विवाह किया। यात्रा करते-करते आखिर वह भड़ौच नगर में पहुंचा, जहां उसे उसकी सभी पत्नियां मिल गईं। भड़ौच नगर के राजा ने भी भीमसेन से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। साथ ही उसे राजपद देकर स्वयं दीक्षित हो गया।
भीमसेन अपनी उदार वृत्ति से जगत् में प्रसिद्ध होता गया। महाराज हरिसेन को भी अपनी भूल का अनुभव हो चुका था। उन्होंने पुत्र को आमंत्रित किया। भीमसेन अपनी नौ पलियों और भारी दल-बल के साथ अपनी मातृभूमि भुज पहुंचा। पिता ने शासन-सूत्र पुत्र को सौंपकर दीक्षा धारण कर ली।
भीमसेन ने अनेक वर्षों तक प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। जीवन की सांध्यबेला में प्रव्रज्या धारण कर और निरतिचार संयम का पालन कर उसने परम पद प्राप्त किया। भीमसेन (हरिसेन) ____ मालवदेश की उज्जयिनी नगरी का राजा। उसके सहोदर का नाम हरिसेन था। दोनों सहोदरों के मध्य राम-लक्ष्मण के समान प्रेम भाव था। भीमसेन की रानी का नाम सुशीला और हरिसेन की रानी का नाम सुरसुन्दरी था। पूरे परिवार में परस्पर सघन प्रेम भाव था। सुशीला ने कालक्रम से दो पुत्रों को जन्म दिया। राजकुमारों के नाम देवसेन और केतुसेन रखे गए।
सुरसुन्दरी की एक दासी दुष्ट स्वभाव की थी। उस दासी ने सुरसुन्दरी के मन में सुशीला और भीमसेन के प्रति विष भर दिया। सुरसुन्दरी ने अपने पति के हृदय में उसके भाई और भाभी के प्रति द्वेषभाव जगा दिया। हरिसेन अपने अग्रज, अपनी भाभी और दोनों भ्रातृपुत्रों को मारने के लिए उद्यत हो गया। सुशीला की विश्वसनीय दासी ने हरिसेन के षड्यंत्र को जान लिया और उसने अपनी स्वामिनी को सावधान कर दिया। सुशीला ने पति को सचेत किया। भीमसेन अपनी पत्नी और दोनों पुत्रों को साथ लेकर सुरंग मार्ग से जंगल में चला गया। कल का राजपरिवार पथ का भिखारी हो गया। भीमसेन हीरों की एक पोटली अपने साथ लाया था, जिसे चोरों ने चुरा लिया। चारों प्राणी क्षितिप्रतिष्ठितपुर नगर में रहकर मेहनत-मजदूरी से उदर पोषण करने लगे। पर दिन भर के कठिन श्रम से भी इतना कम अर्जन हो पाता था कि वे ठीक से भोजन भी नहीं कर सकते थे।
_भीमसेन और सुशीला श्रमणोपासक थे। जिनधर्म पर उनकी अगाध आस्था थी। फलतः वे किसी को दोष न देकर अपनी स्थिति के लिए स्वयं के पूर्वोपार्जित कर्मों को ही दोषी मानते थे। एक बार किसी व्यक्ति ने भीमसेन को बताया कि पठानपुर नगर का राजा प्रति छह मास के पश्चात् याचकों को यथेच्छ दान देता है। भीमसेन यथेच्छ दान पाने के लिए पइठानपुर जाने को तैयार हुआ। उसने किसी तरह मनाकर पत्नी और पुत्रों को क्षितिप्रतिष्ठितपुर नगर में ही रहने को राजी कर लिया। भीमसेन पइठानपुर गया, पर उसके कर्म रूठे हुए थे, फलतः वहां भी उसे निराशा ही हाथ लगी। आखिर एक सार्थवाह के साथ मिलकर उसने देशाटन किया। वर्षों तक व्यापार कर उसने पर्याप्त धन कमाया। पूरे धन के बदले हीरे-मोती खरीदकर वह अपनी पत्नी और पुत्रों के पास जा रहा था तो चोरों ने उसके हीरे-मोती चुरा लिए। वर्षों का श्रम व्यर्थ हो गया। इससे भीमसेन का धैर्य डोल गया। उसने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया। पर जैसे ही उसने आत्महत्या का निश्चय किया, उसके अशुभ कर्म जीर्णता के तट पर पहुंच गए। उसे एक मासोपवासी मुनि के दर्शन हुए। उसके पास थोड़ा पाथेय था, जिससे उसने मुनि का पारणा कराया। मुनि को भिक्षा दान देकर भीमसेन एक नगर में पहुंचा। यह चम्पापुर नगर था, जहां का राजा निःसंतान अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो ... जैन चरित्र कोश ...
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