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ब्रह्म गुलाल
चन्द्रवाड़ के निकटस्थ ग्राम टापू (टप्पल) का निवासी एक जैन श्रावक । ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड़ नगर के चौहान राजा कीर्ति सिंह का दरबारी था। नरेश भी जैन धर्म का अनुरागी था। ब्रह्मगुलाल पर भी नरेश का विशेष प्रेमभाव था। ब्रह्मगुलाल नरेश का दरबारी था और अभिनय कला में प्रवीण होने के कारण नरेश को खुश रखता था। एक बार नेरश ने ब्रह्मगुलाल से कहा कि वह जैन मुनि का अभिनय करके दिखाए। नरेश की आज्ञा पर ब्रह्मगुलाल ने घर-बार त्याग कर श्रामणी वेशविन्यास धारण कर लिया। उसने कहा, महाराज! जैन श्रमण का अभिनय नहीं किया जा सकता, जैन श्रमण तो हुआ जाता है और उसके लिए पंचमहाव्रतात्मक प्रव्रज्या ली जाती है। कहते हैं कि ब्रह्मगुलाल फिर संसार में नहीं लौटे।
उन्होंने आजीवन मुनि-धर्म का पालन कर आदर्श स्थापित किया। ब्रह्मगुलाल 17वीं ई. के पूर्वार्द्ध के महामना मुनिवर थे। ब्रह्मदत्त (चक्रवर्ती)
अवसर्पिणीकालीन बारह चक्रवर्तियों में अन्तिम चक्रवर्ती। उत्तराध्ययन सूत्र और त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र में ब्रह्मदत्त के जीवन का उसके पूर्वभवों सहित विवरण प्राप्त होता है, जो रोचक होने के साथ-साथ जैन दर्शन के कर्म और निदान आदि सिद्धान्तों से भरा है। परिचय इस प्रकार है____ चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार के समय वाराणसी नगरी के बाह्य भाग में भूतदत्त नामक चाण्डाल रहता था। उसके दो पुत्र थे-चित्त और संभूति। एक बार वाराणसी नरेश शंख ने अपने प्रधान नमुचि को अपनी पटरानी के साथ अनुचित अवस्था में पाया तो उसने कुपित होकर नमुचि को मृत्युदण्ड दे दिया। नमुचि के वध का दायित्व भूतदत्त को सौंपा गया। नमुचि ने भूतदत्त से अपने प्राणों की भीख मांगी। भूतदत्त ने इस शर्त पर उसे जीवित छोड़ दिया कि वह उसके घर के तलघर में रहकर उसके पुत्रों को सुशिक्षित करेगा। नमुचि भूतदत्त के तलघर में रहकर उसके पुत्रों को संगीत आदि कलाएं सिखाने लगा। वहां भी नमुचि अपनी दुष्टता से बाज नहीं आया और उसने भूतदत्त की पत्नी से अनुचित सम्बन्ध स्थापित कर लिए। भूतदत्त को इस रहस्य का भेद ज्ञात हुआ तो वह नमुचि को मारने को तत्पर हो गया। चित्त और संभूति ने नमुचि को अपना शिक्षागुरु मान लिया था, अतः उन्होंने नमुचि को सुरक्षित भाग जाने का संकेत दे दिया। वहां से भागकर नमुचि हस्तिनापुर पहुंचा और चक्रवर्ती सनत्कुमार के पास अपनी कुशलता से उनका प्रियमित्र बन गया तथा मंत्रीपद पा गया।
एक बार किसी उत्सव के दिन चित्त और संभूति ने राजा और प्रजा के समक्ष अपनी संगीत कला का प्रदर्शन किया। राजा-प्रजा उनकी संगीत कला पर झूम उठे। पर जैसे ही लोगों को यह ज्ञात हुआ कि वे दोनों भाई चाण्डाल पुत्र हैं तो उन्हे अपमानित और तिरस्कृत कर भगा दिया गया। दोनों भाई विक्षुब्ध बन गए
और आत्महत्या के विचार से एक पर्वत पर चढ़ गए। वहां एक मुनि ने उन्हें आत्महत्या के दुष्परिणाम को समझाया और मुनि बनने के लिए प्रेरित किया। दोनों भाई मुनि बनकर उत्कट तप करने लगे, जिसके फलस्वरूप उन्हें अनेक दिव्य ऋद्धियां और सिद्धियां प्राप्त हो गईं।
___ एक बार विचरण करते हुए दोनों मुनि हस्तिनापुर आए। वहां नमुचि ने उनको पहचान लिया। इस विचार से कि ये मुनि उसका अतीत न उघाड़ दें, उसने उनको मारना शुरू कर दिया। नमुचि की इस मार को चित्त मुनि ने तो मुनि-जीवन के एक अंग के रूप में स्वीकार कर लिया पर संभूति मुनि इस अकारण मार को ... 372 ..
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