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बचपन से ही अन्तर्मुखी था और यौवनावस्था में भी वह भोगों से विरत ही बना रहा। किसी समय संत-संग का सुसंयोग पाकर वह विरक्त हो गया और मुनिव्रत धारण कर तप-संयम में तल्लीन हो गया। कालान्तर
भावदेव भी युवा हुआ और उसका विवाह हो गया। जब वह प्रथम बार अपनी पत्नी नागला को लेकर अपने ग्राम को आ रहा था तो उसे जंगल में उसका अग्रज मुनि भवदेव मिल गया। मुनि ने भावदेव को उपदेश दिया । उपदेश से भावदेव भी विरक्त हो गया। पर उसके समक्ष दुविधा का कारण था उसकी नवागन्तुक पत्नी नागला । नागला एक उच्च चरित्र की युवती थी। उसने देखा, उसके पति के लिए वह बन्धन बन रही है। उसने पति से कहा, स्वामी! यदि आप प्रव्रजित बनकर आत्मकल्याण के आकांक्षी हैं तो उसके लिए मुझे बन्धन न मानें! मैं आपको सहर्ष आज्ञा प्रदान करती हूं ! मैं स्वयं सासू जी की सेवा करके अपने जीवन को धन्य बनाऊंगी ! भावदेव के भाव चढ़े हुए ही थे । सो वह वहीं दीक्षित हो गया और संयम पालन में लीन हो
गया।
संयम का पालन करते हुए भावदेव को कई वर्ष बीत गए। पर उसका मन यदा-कदा संयम पथ से विचलित बन जाता और पत्नी नागला में रम जाता। कालक्रम से अग्रज मुनि भवदेव परलोक सिधार गए । इसे भावदेव ने संसार में लौटने का सुअवसर माना। वह मुनिवेश में ही अपने गांव पहुंचा। गांव के बाहर उद्यान में ठहरा। उधर नागला मुनि दर्शन के लिए गई। भावदेव नागला को पहचान नहीं सका। उसने नागला से रेवती गाथापत्नी और उसकी पुत्रवधू के बारे में पूछा। इससे नागला भावदेव को पहचान गई । पर अपना परिचय गुप्त रखते हुए उसने मुनि को बताया कि रेवती गाथापत्नी कई वर्ष पहले स्वर्ग सिधार चुकी है और उसकी पुत्रवधू धर्मध्यानपूर्वक जीवन यापन कर रही है। नागला की कुशल-क्षेम जानकर मुनि प्रसन्न हुआ। उसने कहा, मैं नागला का पति हूं। मेरे विरह में नागला बहुत दुखी रहती होगी। अब उसका दुख दूर हो जाएगा ।
मुनि के वचन सुनकर नागला सिहर गई। पर उसने अपने भावों पर अंकुश लगाए रखा। उसने अपना कर्त्तव्य स्थिर किया और संकल्प किया कि पतन को तत्पर मुनि को वह पतित नहीं होने देगी। उसने एक उपक्रम किया। कुछ देर के लिए वह उपाश्रय से बाहर चली गई। पुनः वहां आकर सामायिक करने लगी । मुनि भावदेव चाहता था कि वह महिला उपाश्रय से शीघ्र जाए, जिससे वह भी अपने घर जा सके।
उसी समय एक घटना घटी। एक छोटा-सा बालक दौड़ता हुआ उपाश्रय में आया और 'न-न' करने पर भी वह उस महिला की गोद में आ बैठा और बोला, मां! आज तुमने बहुत स्वादिष्ट खीर बनाई थी। मैंने पेट भर कर खीर खाई । पर अन्तिम ग्रास में मक्खी आ गई, जिससे वमन हो गया और पूरी खीर बाहर आ गई। बालक की बात सुनकर महिला ने उत्सुकता से पूछा, फिर क्या हुआ ? बालक ने कहा, फिर मैंने उस वमन को पुनः खा लिया। आखिर इतने अच्छे भोजन को व्यर्थ कैसे जाने देता ! बालक की बात सुनकर महिला ने उसके कृत्य की प्रशंसा की और कहा, कि एक इंगियागारसम्पन्न पुत्र से माता को यही अपेक्षा होती है।
मुनि भावदेव का मन महिला और बालक की इस बातचीत को सुनकर वितृष्णा से भर गया और बोला, छीछी कैसी श्वानवृत्ति ! और उस पर भी प्रशंसा ! हीन से हीन मनुष्य वमन को खाने की कल्पना
कर सकता है
!
महिला को अपनी बात कहने के लिए भूमिका प्राप्त हो गई। वह बोली, महाराज! यह सच है कि एक न से हीन व्यक्ति भी वमन को चाटने की कल्पना नहीं कर सकता है। पर कभी-कभी ऐसा भी देखने में ••• जैन चरित्र कोश
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