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बार दोनों भाइयों ने पांच सौ छोटे व्यापारियों के साथ व्यापार के लिए प्रस्थान किया। एक निर्जन द्वीप पर जहाज रुके। सभी लोग द्वीप पर यत्र-तत्र टहलने लगे। भविष्यदत्त भी द्वीप पर घूमने लगा। बंधुदत्त ने भविष्यदत्त को जहाज से दूर गया देखकर रवानगी की घण्टी बजा दी। भविष्यदत्त को सुनसान द्वीप पर ही छोड़कर वह जहाजों को लेकर रवाना हो गया। भविष्यदत्त बंधुदत्त के मनोभावों को समझ गया। पर उसने बंधुदत्त पर क्रोध नहीं किया और इसे अपने ही पूर्वजन्म के पाप कर्मों का फल मानकर वह एक दिशा में चल दिया। शाम तक चलने पर वह एक नगर में पहुंचा। नगर का नाम तिलकपुरपट्टन था। भविष्यदत्त ने देखा कि वह नगर तो अति सुन्दर और रमणीक है पर जनशून्य है। उसे आश्चर्य हुआ। नगर में घूमते हुए वह राजमहल के द्वार पर पहुंचा। वहां उसे तिलकसुंदरी नाम की युवा और सुन्दर कन्या मिली। उसने उससे जनशून्यता का कारण पूछा। युवती ने आद्योपान्त एक लम्बा घटनाक्रम सुनाया और बताया कि अशनिवेग नामक एक देव ने इस नगर को जनशून्य बना दिया है। उसने सभी नागरिकों को और राजा को समुद्र में डुबोकर मार दिया है, पर मुझे उसने जीवित छोड़ दिया है। वह मुझसे पुत्रीवत् स्नेह करता है। पर वह अन्य किसी भी मनुष्य को जीवित नहीं छोड़ता। ___ भविष्यदत्त ने तिलकसुंदरी के पूछने पर अपना भी परिचय दिया और उसे साहस का सम्बल देते हुए कहा कि अब उसके एकाकी जीवन का अन्त हो गया है और वह उसका सहयोगी बनकर उसकी रक्षा करेगा। संध्या समय अशनिवेग आया। भविष्यदत्त को देखकर उसका क्रोध आसमान छूने लगा। उसने उसे ललकारा। परन्तु उसकी ललकार का कुछ भी प्रभाव भविष्यदत्त पर नहीं हुआ। पूरे निर्भय चित्त से भविष्यदत्त अशनिवेग का सामना करने को तैयार हो गया। एक मानव का ऐसा साहस देखकर देव चकित रह गया। उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया और पाया कि भविष्यदत्त पूर्वजन्म का उसका उपकारी है। इससे अशनिवेग ने भविष्यदत्त को अपना मित्र बना लिया। उसने उसे उस नगर का राजा तो बनाया ही साथ ही तिलकसुंदरी का पाणिग्रहण भी उसके साथ कर दिया। ____ उधर बंधुदत्त जहाजों को लेकर आगे बढ़ा। साथ के व्यापारियों ने मन ही मन बंधुदत्त को धिक्कारा कि उसने भविष्यदत्त जैसे धर्मात्मा भाई से छल किया। पर प्रत्यक्षतः वे बंधुदत्त का विरोध नहीं कर सकते थे क्योंकि वे उसके आश्रित थे। विदेशों में रहकर बंधुदत्त ने प्रभूत धन कमाया और अपने देश के लिए रवाना हुआ। परन्तु अधर्मी व्यक्ति फूल तो सकता है पर फल नहीं सकता। समुद्री दस्युओं ने बंधुदत्त के जहाज को लूट लिया। बंधुदत्त और उसके साथ यात्रा कर रहे पांच सौ व्यापारी कंगाल हो गए। आखिर लौटते हुए उनका जहाज तिलकपुरपट्टन की बन्दरगाह पर लगा। सभी लोग क्षुधातुर थे। उनका विचार था कि कुछ दिन उक्त नगर में मेहनत-मजदूरी करके वे उतने धन की व्यवस्था जुटा लें, जिससे मार्ग में उदरपोषण संभव हो सके। पर नगर में उन्होंने जनशून्यता देखी तो वे भयभीत हो गए। आखिर भविष्यदत्त से उनकी भेंट हुई। बंधुदत्त ने कृत्रिम आंसू बहाकर अपने अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा मांगी। ___ निर्मल हृदय भविष्यदत्त ने बंधुदत्त को क्षमा कर दिया और उससे कहा कि लुट जाने से वह दुखी न बने और जितना धन उसे चाहिए वह उस नगर से प्राप्त कर ले। बंधुदत्त ने धन-दौलत से जहाज भर लिए, व्यापारियों ने भी यथेच्छ धन प्राप्त किया। भविष्यदत्त ने भी भाई और साथी व्यापारियों के साथ अपने देश जाने का निश्चय कर लिया। वह तिलकसुंदरी के साथ जहाज पर सवार हो गया। पर जैसे ही जहाजों की रवानगी का समय हुआ, तिलकसुंदरी को स्मरण हुआ कि वह अपना एक विशेष रत्न महल में ही भूल आई है। उसने भविष्यदत्त से रत्न के बारे में कहा। भविष्यदत्त स्वयं रत्न लेने के लिए महल के लिए चल दिया। ... जैन चरित्र कोश ...
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