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अशोक का हृदय कांप उठा, उसने कभी युद्ध नहीं करने का निश्चय किया। उसने अपना शेष जीवन प्रजा की भलाई में अर्पित कर दिया। उसने साफ-सुथरे राजपथ बनवाए, धर्मशालाएं, दानशालाएं, विद्यालय और चिकित्सालय खोले। सभी धर्मों का वह समान रूप से आदर करता था। अपने महनीय कार्यों से उसने स्वयं को सर्वकालीन महान शासक सिद्ध किया।
अशोक का विवाह असन्ध्यमित्रा नामक एक जैन कन्या से हुआ था। असन्ध्यमित्रा से ही कुणाल का जन्म हुआ था। अशोक का कुलधर्म जैनधर्म था। उसके बौद्ध धर्मी होने के भी पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। परन्तु उसके शिलालेखों के सूक्ष्म अध्ययन और पौराणिक ग्रन्थों के कई सन्दर्भो से वह एक जैन राजा सिद्ध होता है। अशोकमंजरी
रत्नविशाला नगरी के धीर-वीर और दृढ़प्रतिज्ञ युवक रत्नसार की पली। (देखिए-रत्नसार) अश्वग्रीव
प्रथम प्रतिवासुदेव जिसका वध त्रिपृष्ठ वासुदेव ने किया था। (देखिए-त्रिपृष्ठ वासुदेव) अश्वमित्र (निन्हव)
समुच्छेदवाद का प्रचारक एक जैन श्रमण जो भगवान महावीर के निर्वाण के 220 वर्ष के पश्चात् हुआ। वह आचार्य महागिरि का प्रशिष्य और कौण्डिन्य मुनि का शिष्य था। विपरीत प्ररूपणा के कारण उसे संघ से निष्कासित कर दिया गया। आखिर काम्पिल्यपुर नगर के खण्डरक्षा नामक श्रमणोपासक की सटीक युक्ति से अश्वमित्र को सत्य का बोध प्राप्त हुआ और वह आलोचना, प्रायश्चित्त से विशुद्ध बन पुनः जिन आज्ञा का आराधक बन गया।
-ठाणांग वृत्ति-6 अश्वसेन
वाराणसी नगरी के महाराज और प्रभु पार्श्वनाथ के जनक। (देखिए-पार्श्वनाथ तीर्थकर) अश्विनी
नंदिनीपिता श्रमणोपासक की अर्धांगिनी और भगवान महावीर की अनन्य उपासिका। असंध्यमित्रा
मौर्यवंशी सम्राट अशोक की रानी। असंध्यमित्रा विदिशा नगरी के जैन श्रेष्ठी की पुत्री थी। कुणाल असंध्यमित्रा का आत्मज था। माता से जैनधर्म के संस्कार प्राप्त कर कुणाल भी जिनोपासक बना।
सम्राट अशोक के पश्चात् उनके राजपरिवार में जैन धर्म का काफी प्रभाव रहा। अशोक के पौत्र और भारतवर्ष के यशस्वी सम्राट् सम्प्रति ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में वही योगदान दिया जो अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में दिया था। इस सब के मूल में संभवतः असंध्यमित्रा का जैन होना और उसकी पावन प्रेरणा रही हो। (दखिए-अशोक राजा)
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