________________
एक बार भगवान के पीछे-पीछे चलता हुआ गोशालक कूर्म ग्राम के बाह्य भाग से गुजर रहा था। वहां वैश्यायन नाम का एक तापस वृक्ष से उल्टा लटक कर सूर्य की आतापना ले रहा था। वैश्यायन की जटाएं लम्बी थीं और उनसे जुएं निकलकर नीचे गिर जाती थीं। वैश्यायन नीचे गिरी जूओं को उठाकर पुनः अपने सिर में रख लेता था। वैसा करते देखकर गौशालक ने तपस्वी का उपहास किया। नाराज तपस्वी ने गोशालक पर तेजोलेश्या छोड़ दी। गोशालक का शरीर दहकने लगा। उसकी दुरावस्था पर करुणा कर भगवान ने शीतललेश्या छोड़कर उसकी पीड़ा का हरण कर लिया। तेजोलेश्या की शक्ति से गोशालक चमत्कृत हो गया। उसने तेजोलेश्या की साधना-विधि भगवान से पछी और तदनसार छह मास की साधना के पश्चा वह उसे प्राप्त करने में सफल भी हो गया। तब वह अपने आपको सर्वशक्तिसम्पन्न समझने लगा। छह वर्षों तक भगवान के साथ रहने के पश्चात् उसने भगवान का साथ छोड़ दिया। भगवान पार्श्व की परम्परा के संयमच्युत छह साधुओं से उसका सम्पर्क हो गया और उसने उनसे अष्टांग निमित्त सीख लिया। वह लोगों को सुख-दुख, हानि-लाभ आदि के बारे में बताने लगा, जिससे लोगों में उसकी मान्यता काफी बढ़ गई। वह अपने आपको सर्वज्ञ और तीर्थंकर घोषित करने लगा। ____एक बार जब भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी में पधारे तो इन्द्रभूति गौतम के एक प्रश्न का समाधान देते हुए प्रभु ने स्पष्ट किया कि गोशालक तीर्थंकर नहीं है और छद्मस्थ अवस्था में वह उनका शिष्य रह चुका है। यह बात नगरी में फैल गई। क्रोध से तमतमाता हुआ गोशालक भगवान के पास पहुंचा। उसने भगवान के दो शिष्यों-सुनक्षत्र और सर्वानुभूति अणगार को तेजोलेश्या छोड़कर जला दिया। तब उसने भगवान पर भी उसी लेश्या का प्रक्षेपण किया। पर वह लेश्या भगवान के शरीर का स्पर्श कर लौट आई और गोशालक के ही शरीर में प्रवेश कर गई। दाहदग्ध बनकर बड़बड़ाता हुआ गोशालक अपने स्थान पर लौट गया और सातवें दिन उसका देहावसान हो गया। मृत्यु से पूर्व उसे सद्बुद्धि प्राप्त हो गई और उसने अपने भक्तों को बुलाकर आत्मनिन्दा की। फलतः देहोत्सर्ग कर वह बारहवें देवलोक में देव रूप में जन्मा। -भ.सूत्र, श. 25 गोष्ठामाहिल (निन्हव) ____ आचार्य आर्य रक्षित का शिष्य और अबद्धिकवाद का प्ररूपक। कर्म प्रवाद की वाचना लेते हुए स्पृष्टबद्ध निकाचित के स्वरूप पर उसे शंका उत्पन्न हुई और शंका से दुराग्रह का जन्म हुआ। उसकी मान्यता थी कि कर्म जीव के साथ स्पृष्ट होते हैं, बद्ध नहीं होते। आचार्य श्री और अन्य स्थविरों ने उसे समझाया, संघ ने समझाया, संघाराधित देव ने तीर्थंकर देव से सही उत्तर लाकर उसे दिया, पर वह अपने आग्रह पर डटा रहा। अंततः उसे संघ से निष्कासित कर दिया गया। निन्हवावस्था में ही अपरिमित भव-भ्रमण का बोझ लेकर वह इस लोक से विदा हुआ।
-ठाणांग वृत्ति-7 गौतम कुमार
राजा अन्धकवृष्णि और रानी धारिणी के अंगजात। यौवन वय में इनका आठ राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण हुआ। किसी समय भगवान अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी में पधारे। भगवान का उपदेश सुनकर गौतम प्रतिबुद्ध हुए और माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त कर कर्मशत्रुओं से लोहा लेने के लिए भगवान के पास प्रव्रजित हो गए। उन्होंने सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों तक का अध्ययन किया। बारह भिक्षु-प्रतिमाओं की उन्होंने आराधना की। साथ ही गुणरत्न तप की आराधना की। बारह वर्षों तक विशुद्ध संयम की परिपालना कर गौतम मुनि शत्रुजय पर्वत पर मासिक संलेखना के साथ मोक्ष पधारे। -अन्तगडदशा प्रथम वर्ग, प्रथम अ. - 152 ..
... जैन चरित्र कोश...