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पुणिया श्रावक की सामायिक की निष्ठा अनन्य थी। तीर्थंकर महावीर ने उसकी शुद्ध सामायिक की प्रशंसा अपने श्रीमुख से की थी। एक बार जब श्रेणिक राजा ने नरक से मुक्ति का उपाय प्रभु से पूछा तो प्रभु ने कहा कि यदि वह पुणिया श्रावक की एक सामायिक खरीद सके तो नरक जाने से बच सकता है। मगधेश श्रेणिक पुणिया के झोंपड़े पर पहुंचा और उससे एक सामायिक मोल देने के लिए कहा। कीमत पूछी तो पुणिया बोले, कीमत वही बता सकते हैं जिन्होंने आपको मेरे पास भेजा है। श्रेणिक प्रभु के पास गया और सामायिक की कीमत प्रभु से पूछी। प्रभु ने स्पष्ट किया, चांद सितारों तक हीरे जवाहरात का ढेर लगाकर भी एक सामायिक के सोलहवें अंश का भी मूल्य पूर्ण नहीं होता है। सुनकर श्रेणिक मौन हो गया।
विशुद्ध सामायिक का आराधक पुणिया श्रावक सम्यक् और साधनामयी जीवन जीकर देवलोक में गया। वहां से मनुष्य जन्म लेकर निर्वाण पद प्राप्त करेगा। पुण्यभद्र आचार्य संभूतविजय के एक शिष्य।
-कल्पसूत्र स्थविरावली। पुण्यपाल
जीव, अजीव, पाप, पुण्य आदि तत्वों का ज्ञाता एक श्रेष्ठीपुत्र, अनन्य श्रद्धाशील, धीर, वीर, गम्भीर और शूरवीर युवकरन। विराटनगर के सम्पन्न श्रेष्ठी सुबुद्धि उसके पिता थे, जो नगरनरेश जितशत्रु के महामंत्री थे। उसकी जननी का नाम कलावती था, जो तत्वज्ञा और धर्मप्राण सन्नारी थी। कनकमंजरी नामक कन्या से पुण्यपाल का पाणिग्रहण हुआ, जो देवकन्या-सी रूपवती और परम पतिपरायण सन्नारी थी। पुण्यपाल के पुण्य गगन का स्पर्श कर रहे थे। नगरनरेश और नगरजन उस पर प्राण लुटाते थे। पर जैसे देह के साथ छाया का सम्बन्ध जुड़ा रहता है, ऐसे ही पुण्य और पाप परस्पर जुड़े रहते हैं। एक बार पुण्यपाल के पुण्यकर्म कुछ निस्तेज हो गए और पाप कर्म सतेज बन गए। राजा जितशत्रु चापलूस सभासदों से घिरा बैठा था, जो सभी उसे ही प्रजा के सुख-दुख का नियंता घोषित कर रहे थे। पुण्यपाल को मौन देखकर राजा ने उसे भी अपनी सम्मति देने को बाध्य किया तो उसने स्पष्ट कर दिया कि मनुष्य अपने सुखों और दुखों का कर्ता स्वयं होता है, दूसरे तो निमित्त मात्र हैं। सच में तो प्रजा अपने पुण्यों से सुखी है और कोई दुखी है तो उसका कारण भी वह स्वयं ही है। पुण्यपाल की बात सुनकर राजा का अहंकार फुफकार उठा। उसने पुण्यपाल को यह कहते हुए देशनिकाला दे दिया कि तू स्वयं जान लेगा-मैं ही तुम्हारे सुख और दुख का नियंता हूं।
प्रसन्न और शान्त चित्त से माता-पिता को प्रणाम कर पुण्यपाल अपने नगर से चल दिया। कनकमंजरी ने पति का अनुगमन किया । कई दिनों तक चलते-चलते दोनों रत्नपुरी नगरी में पहुंचे। उस नगरी को उचित स्थान जानकर पुण्यपाल चतुराई से कनकमंजरी से अलग हो गया और वहां से पुष्पदत्त नामक युवा व्यापारी के जहाज पर सवार होकर देशाटन के लिए निकल गया। कनकमंजरी ने राजकीय पौषधशाला में शरण ली और धर्मध्यान में रत रहकर वह पति के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । ___ पुण्यपाल के पुण्यों का सूर्य पुनः चमक उठा। पुष्पदत्त के साथ यात्रा करते हुए उसने अपने पुण्ययोग और बुद्धिबल से तीन राज्यों को प्राप्त किया और तीन राजकुमारियों से पाणिग्रहण किया। मार्ग में उसे पुण्यदत्त की कुटिलता का शिकार भी बनना पड़ा, पर पुण्य साथ हो तो पापी से पापी शत्रु भी अहित नहीं कर सकता। पुण्यपाल भारी सैन्यदल के साथ रत्नपुरी नगरी लौटा और वहां से कनकमंजरी को साथ लेकर उसने अपने नगर-विराटनगर के लिए प्रस्थान किया। उसके साथ तीन राज्यों की सेना, हाथी, घोड़े और ... जैन चरित्र कोश ...
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