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देवचन्द्र मुनि के समझाने और वहां के राज्यमंत्री उदयन के वात्सल्यपूर्ण व्यवहार से उनकी नाराजगी दूर हो गई। यही बालक चांगदेव दीक्षित होने पर मुनि सोमदेव और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर हेमचन्द्र कहलाए, जिन्होंने सभी विषयों पर ग्रन्थों की रचना कर जैनधर्म के साहित्य भण्डार को भर दिया।
जिस दिन हेमचन्द्र आचार्य बने, उसी दिन पाहिनी ने भी दीक्षा ग्रहण की और संयम - तपमय जीवन की आराधना कर आत्मकल्याण किया। (देखिए हेमचन्द्राचार्य)
पाहिल श्रेष्ठी
दसवीं सदी का एक जैन श्रावक, जो उदार हृदय और परम जिनभक्त था । उसने सन् 954 में सात विस्तृत वाटिकाओं का दान किया था और भावना व्यक्त की थी कि कोई भी राजा शासन करे वह पाहिल को अपना दासानुदास समझकर उस द्वारा प्रदत्त वाटिकाओं की रक्षा करे ।
पाहिल श्रेष्ठी की जिन भगवान के प्रति अनन्य आस्था थी । खजुराहो में उसने भगवान आदिनाथ के मंदिर का निर्माण भी कराया था, जो वर्तमान में पारस मंदिर के रूप में विद्यमान है।
पिंगल निर्ग्रन्थ
महावीरकालीन एक निर्ग्रन्थ । (देखिए - स्कंदक)
पितृसेनकृष्णा
आर्या पितृसेनकृष्णा ने मुक्तावली तप की आराधना की। इसमें तीन वर्ष और दो मास का समय लगता है। (शेष वर्णन-कालीवत्) - अन्तकृद्दशांगसूत्र वर्ग 8, अध्ययन 9
(क) पुंडरीक
पुण्डरीकिणी नगरी का स्वामी, जिसने अन्तिम अवस्था में चन्द दिनों के चारित्र पालन से ही सर्वार्थ सिद्ध की ऊंचाई को प्राप्त कर लिया था । (देखिए - कुण्डरीक मुनि)
(ख) पुंडरीक ( गणधर )
भगवान ऋषभदेव के चौरासी गणधरों में प्रथम गणधर ।
पुणिया श्रावक
जैन पौराणिक कथा साहित्य के अनुसार राजगृह निवासी एक श्रमणोपासक । एक उल्लेख के अनुसार वह कालसौकरिक कसाई का पुत्र सुलस ही था, जो अपने पिता के हिंसक व्यापार को ठुकरा कर राजगृह एक कोने में झोंपड़ी डालकर रहने लगा था । व्यवसाय रूप मे वह रूई की पूणियां बनाकर बेचता था और उससे जो थोड़ा-बहुत अर्जन होता, उसी से पेट पालकर धर्मध्यान में मस्त रहता था। महामंत्री अभयकुमार
उसकी अंतरंग मित्रता थी । पर इस मित्रता का उसने अपने लिए आर्थिक दृष्टि से लाभ के लिए कभी उपयोग नही किया। एक बार जब उसके पिता ने उसकी झोंपड़ी में आग लगवा दी, तो अभयकुमार उसकी सहायता के लिए आया और घर बनाने के लिए उसे आर्थिक मदद देनी चाही तो उसने स्पष्ट इन्कार कर दिया। उसने और उसकी पत्नी ने एक-एक दिन उपवास का क्रम शुरू किया और उस बचत से उन्होंने एक वर्ष की अवधि में इतना धन जोड़ लिया कि वे अपनी झोंपडी बना सकें। एक मान्यता के अनुसार वर्षीतप का प्रचलन तभी से जैन परम्परा में प्रचलित हुआ।
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