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प्रभु से पूछे और समाधान पाकर वह सम्यक्त्वी बन गया। परिव्राजक परम्परा का त्याग कर वह श्रमण-धर्म में दीक्षित हुआ और विशुद्ध संयम की आराधना से सर्वकर्म विमुक्त होकर मोक्ष में गया ।
(क) पुरन्दर
वाराणसी नरेश विजयसेन की महारानी कमलमाला की कुक्षी से उत्पन्न एक गुणानुरागी कुमार । गुणानुरागिता से राजकुमार पुरन्दर का जीवन सद्गुणों का कोष बन गया और अपने गुणों के कारण वह जन-जन के मन को प्रिय बन गया। पुरन्दर में रूप, गुण और यौवन का सुन्दर समन्वय था ।
महाराज विजयसेन की छोटी रानी का नाम मालती था, जो रूप में रंभा के समान थी। राजा की उस पर अतिशय प्रीति थी। मालती का पुरन्दर पर सहज अनुराग था । परन्तु शनैःशनैः उसके अनुराग-भाव में काम का विष-भाव प्रवेश कर गया। एक बार उसने पुरन्दर से प्रणय- प्रार्थना की, जिसे सुनकर पुरन्दर अपने कानों पर विश्वास नहीं कर सका। पुरन्दर ने विमाता को नीति और धर्म के वचनों से सुपथा बनाने का प्रयत्न किया पर उसे सफलता नहीं मिली। पुरन्दर ने विचार किया, विमाता से दूर रहकर ही उसके हृदय को परिवर्तित किया जा सकता है। इसी विचार से पुरन्दर ने एक रात्रि में बिना किसी को सूचित किए अपने नगर को छोड़ दिया। रात्रि में ही वह नगर से बहुत दूर निकल गया । वन पथ पर उसे एक ब्राह्मण मिला। दोनों में प्रीतिभाव हो गया ।
घने जंगल में दस्युराज वज्रभुज ने पुरन्दर का मार्ग रोक लिया। वज्रभुज महाराज विजय से दण्डित हो चुका था । पुरन्दर को पहचान कर वह प्रतिशोध के भाव से भर गया । उसने राजकुमार पर आक्रमण कर दिया । परन्तु वह राजकुमार का अहित नहीं कर सका। पुरन्दर सावधान था। उसने बाण-वर्षा कर वज्रभुज को घायल कर दिया। वज्रभुज प्राणों की भीख मांग कर भाग खड़ा हुआ ।
राजकुमार पुरन्दर आगे बढ़ा। उसे भूतानंद नामक एक योगी मिला । योगी ने पुरन्दर के बल-विक्रम से प्रभावित होकर उससे प्रार्थना की कि एक विशिष्ट विद्या साधना में वह उसका उत्तर साधक बने । पुरन्दर ने परोपकारी भाव से योगी का उत्तर साधक बन कर उसे विद्या सिद्धि में पूर्ण सहयोग दिया । प्रसन्न होकर योगी ने पुरन्दर को कई अद्भुत विद्याएं प्रदान कीं ।
पुरन्दर नंदीपुर नगर में पहुंचा और वहीं रहने लगा । विद्या के चमत्कार से उसे प्रतिदिन एक हजार स्वर्णमुद्राएं प्राप्त होती थीं । उन सभी स्वर्णमुद्राओं को राजकुमार पुरन्दर प्रतिदिन दान कर देता था। परिणामतः नंदीपुर में भी वह सुख्यात बन गया ।
एक बार नगर नरेश श्रीधर शूर की युवा पुत्री बन्धुमती का एक विद्याधर ने अपहरण कर लिया । श्रीधर शूर समस्त प्रयत्न करके भी अपनी पुत्री को विद्याधर से मुक्त नहीं करा सका। तब पुरन्दर ने अपने बल और पराक्रम से विद्याधर को परास्त कर बन्धुमती को मुक्त कराया। राजा श्रीशूर ने प्रसन्न होकर धु का विवाह पुरन्दर से कर दिया ।
पुरन्दर की परोपकारिता, दानवीरता और शूरवीरता की प्रशस्तियां भूमण्डल पर व्याप्त हो गई। महाराज विजय भी जान गए कि उनका पुत्र नंदीपुर में है। सो उन्होंने पुत्र को वाराणसी बुला लिया । विमाता मालती का हृदय भी परिवर्तन हो चुका था । पुरन्दर को राज्यभार प्रदान कर महाराज विजय अपनी दोनों रानियों के साथ प्रव्रजित हो गए।
पुरन्दर वाराणसी का राजा बना। उसके शासन काल में वाराणसी की प्रजा अत्यन्त सुखी थी । साम्राज्य - जैन चरित्र कोश •••
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