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(क) पुष्पवती
सोलह महासतियों में से एक महासती दमयंती की जननी । कुंडिनपुर नरेश महाराज भीम की अर्द्धांगिनी । (देखिए -दमयंती)
(ख) पुष्पवती
चम्पा नगरी नरेश जितशत्रु की पुत्री और ललितांग कुमार की परिणीता । (देखिए -ललितांग कुमार) (ग) पुष्पवती
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की एक रानी। (देखिए - ब्रह्म राजा )
पुष्पसाल सुत
राजगृह नगरी के निकटवर्ती ग्राम गुब्बर के निवासी पुष्पसाल नामक सद्गृहस्थ का पुत्र । पुष्पसाल ने एक बार धर्मशास्त्र-पाठक के मुख से एक वाक्य सुना - 'सदैव अपने से बड़ों की विनय और सेवा - भक्ति करनी चाहिए, उससे व्यक्ति का कल्याण होता है।' इस वाक्य को उसने अपने हृदय में धारण कर लिया । उसने विचार किया, मेरे पिता मुझसे बड़े हैं इसलिए मुझे उनकी सेवा - भक्ति करनी चाहिए । वह पिता की सेवा - भक्ति करने लगा। एक दिन वह अपने पिता के साथ ग्रामस्वामी के पास गया। उसके पिता ने ग्रामस्वामी को प्रणाम किया। पुष्पसालसुत ने सोचा, ग्रामस्वामी उसके पिता से भी बड़े हैं और वह ग्रामस्वामी की सेवाभक्ति करने लगा। एक प्रसंग में पुष्पसालसुत को साथ लेकर ग्रामस्वामी मगध के महामंत्री अभय कुमार से मिलने गया । ग्रामस्वामी ने अभय कुमार को प्रणाम किया । अभय कुमार को ग्रामस्वामी से भी बड़ा मानकर पुष्पसालसुत उसकी सेवा करने लगा। अभय कुमार को महाराज श्रेणिक को नमन करते देखकर पुष्पसालसुत महाराज श्रेणिक की सेवाभक्ति करने लगा। उसकी निष्काम सेवाराधना से महाराज श्रेणिक अतीव प्रसन्न हुए।
एक बार भगवान महावीर राजगृह के गुणशील उद्यान में पधारे। महाराज श्रेणिक भगवान को वन्दन करने गए। पुष्पसालसुत श्रेणिक के साथ था। उसने श्रेणिक को भगवान के समक्ष नतमस्तक देखा तो विचार किया - भगवान श्रेणिक से भी बड़े हैं। वह भगवान की सेवा - भक्ति करने लगा। प्रभु सेवा से उसे प्रव्रज्या का महालाभ प्राप्त हुआ और प्रव्रज्या से आत्मसिद्धि का । सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़कर पुष्पसाल आत्मकल्याण को प्राप्त हो गया । - धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 45
पुष्यमित्र (सामुद्रिक वेत्ता)
अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व का एक सामुद्रिक शास्त्रवेत्ता । एक बार जब वह गंगा नदी के तट पर विच कर रहा था तो उसने बालू पर अंकित चरण - चिह्न देखे, जिन्हें देखकर उसे विश्वास हो गया कि वे कि चक्रवर्ती सम्राट् के चरण-चिह्न हैं । अकस्मात् उसकी बुद्धि ने प्रश्न किया, चक्रवर्ती और नंगे पैर ? उसका चिन्तन गहरा हुआ, संभव है कि अभी चक्रवर्ती को राज्य की प्राप्ति न हुई हो। फिर यह भी संभव है कि किसी कारण चक्रवर्ती राज्यच्युत हो गया हो। जो भी हो, ऐसे में चक्रवर्ती से मिलन का यह सुअवसर है। निश्चित ही उसके दर्शन से मेरे भाग्य के द्वार खुल जाएंगे।
चरण-चिह्नों का अनुगमन करते हुए पुष्यमित्र आगे बढ़ा। थूणाक सन्निवेश तक वह आया । देखा अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े किसी भिक्षुक तक आकर चरण-चिह्न खो गए हैं। पुष्यमित्र ने देखा, • जैन चरित्र कोश •••
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