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कालान्तर में एक बार धनमित्र पर चोरी का आरोप लगा। चूंकि धनमित्र चोर नहीं था, फलतः वह अग्नि परीक्षा देने को तत्पर हो गया और उसमें वह सफल भी रहा। पर उस पूरे घटनाक्रम से धनमित्र का हृदय आहत हो गया। उसने संसार का परित्याग कर दीक्षा धारण कर ली और उत्कृष्ट तप-संयम की आराधना कर मोक्ष पद प्राप्त किया।
-धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 39 (ग) धनमित्र
श्रावस्ती नगरी का राजा । (देखिए-स्वयंभू वासुदेव) (घ) धनमित्र
कोल्लाक ग्रामवासी भारद्वाज गोत्रीय एक ब्राह्मण, जो भगवान महावीर के चतुर्थ गणधर व्यक्त स्वामी के जनक थे। (देखिए-व्यक्त स्वामी गणधर) (ङ) धनमित्र
(देखिए-सुधर्मा स्वामी) धनमित्र मुनि
धनमित्र नामक एक सद्गृहस्थ ने अपने पुत्र के साथ श्रामणी दीक्षा अंगीकार की।
किसी समय ग्रीष्म ऋतु में पिता-पुत्र मुनि विहार कर रहे थे। भीष्म-ग्रीष्म के प्रकोप के कारण पुत्र मुनि को अत्यधिक तृषा लगी। धनदत्त मुनि पुत्रमुनि के तृषा परीषह को देखकर चिन्तित हुए। मार्ग में एक जलाशय था। धनदत्त ने विचार किया, उनके समक्ष उनका पुत्र संकोचवश जलाशय से जल नहीं पीएगा। इस विचार से वे शीघ्र कदमों से आगे बढ़ गए। पुत्रमुनि पिता के भावों को समझ गया। तृषाधिकता के कारण जल पीने के लिए वह जलाशय के किनारे गया। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। इस बात से विश्वस्त होकर कि उसे कोई नहीं देख रहा है, उसने जलाशय से पानी की अंजुली भरी। अंजुली के जल में सूर्य का बिम्ब देखकर उसे विचार उत्पन्न हुआ, मुझे अन्य कोई नहीं देख रहा है, परन्तु अंनतज्ञानी तो मुझे देख ही रहे हैं ! उनकी दृष्टि से मैं कैसे बच पाऊंगा ? उसका चिन्तन आत्मोन्मुखी बन गया। उसने सोचा, अपने जीवन की रक्षा के लिए मैं असंख्य जलकायिक जीवों का पान करने चला हूँ, मुझे अपने अहिंसा व्रत का भी विचार नहीं रहा। धिक्कार है मुझे ! ऐसे अपने को धिक्कारते हुए उस युवा मुनि ने यत्नपूर्वक अंजुली के पानी को जलाशय में ही उलीच दिया। वह उठने लगा तो तृषाधिक्य के कारण उसे चक्कर आ गया। वह गिर पड़ा और उसका शरीर पूरा हो गया। ___आयुष्य पूर्ण कर युवा मुनि देवलोक में देवरूप में जन्मा। अवधिज्ञान के उपयोग से उसने अपना पूर्वभव जाना। वह पृथ्वी पर आया और अपने मृतकलेवर में प्रविष्ट होकर आचार्य श्री के पास पहुंचा। उसके पिता मुनि धनमित्र भी वहां उपस्थित थे। युवा मुनि ने आचार्य श्री को अथान्त वृत्त कह सुनाया और सचित्त जल के सेवन की मन से आज्ञा देने के लिए पिता मुनि धनमित्र को प्रायश्चित्त दिलवाकर शुद्ध बनाया। तदनन्तर वह देवलोक को चला गया। धनमित्र मुनि भी मोह भाव को क्षीणकर और विशुद्ध चारित्र का पालन कर सद्गति के अधिकारी बने।
-उत्त. वृत्ति धनश्री
वसंतपुर नगर की रहने वाली एक सच्चरित्रा नारी । वह बालविधवा थी और अपने पितृगृह में ही अपने ... 274 ..
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