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और बाद में पोतनपुर पहुंचा। पोतनपुर नगर उसे पसन्द आया और उसने उसी नगर को अपना कर्मक्षेत्र बना लिया। उसके पुण्य पूरे वेग से विकसित हो उठे। उसने जो भी चाहा, वह उसे मिला। उसकी प्रत्येक कामना अपने आप ही पूर्ण होती चली गई। दुर्दैव ने उसे प्रदेश दिया तो सुदैव ने उसे अपार संपत्ति, अनेक लब्धियां और सुख्याति प्रदान की। इस नगर में वह 'पूनमचन्द' नाम से जाना जाता था। राजा का उस पर विशेष अनुग्रह था। पर बाद में दुष्ट निजी सेवकों ने राजा को पतंगसिंह की पत्नियों के प्रति आकर्षित कर दिया । राजा पतंगसिंह को मार्ग से हटाकर उसकी पत्नियों को अपनी बनाना चाहता था। इसके लिए धूर्त अंतरंग सेवकों के इंगितों पर राजा ने पतंगसिंह को बार-बार असंभव से कार्य सौंपे। पर पतंगसिंह बुद्धिमान और वीर था, तथा उसका भाग्य उसके अनुकूल था, इसलिए उसने राजा के कहे समस्त कार्यों को चुटकियों में पूरा कर दिया। उन्हीं यात्राओं में अनेक राजकुमारियों के साथ पतंगसिंह का विवाह भी हुआ। ___पुण्य जब साथ हो तो समस्त षड्यंत्र विफल हो जाते हैं। अपने पुण्यों के बल पर ही अंततः पतंगसिंह पोतनपुर का राजा बना। उसके बाद वह वसंतपुर का राजा बना। तदनन्तर पतंगसिंह ने विशाल सेना के साथ अपनी मातृभूमि के लिए प्रस्थान किया। जितशत्रु के समक्ष पहले ही अनंगमाला की दुष्टता और पतंगसिंह की सच्चरित्रता प्रकट हो चुकी थी। पुत्र के लौटने पर जितशत्रु गद्गद हो गया। शैशवावस्था में जिस कन्या से पतंगसिंह का विवाह हुआ था, वह उसे भी ले आया। पिता और श्वसुर (जनकसेन) पतंगसिंह को अपने-अपने राज्य देकर प्रव्रजित हो गए।
पतंगसिंह ने धर्मनीति से प्रजा का पालन किया। अंतिम वय में अपने पुत्र को राजपद देकर उसने भी दीक्षा धारण की और निरतिचार चारित्र की आराधना कर मोक्ष प्राप्त किया। -पतंगसिंह चरित्र पद्म
अष्टम् बलदेव श्री राम का जन्मना नाम। परन्तु वे अपने जन्मना नाम पद्म से कम और 'राम' नाम से ही अधिक विख्यात हुए। भारतवर्ष की सभी धर्म-परम्पराओं में श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में अत्युच्च गौरव प्राप्त है। (विशेष परिचय हेतु देखिए-राम) पद्मनाभ
दक्षिण भरत क्षेत्र की अमरकंका नगरी का अधिपति। उसने नारद के मुख से द्रौपदी के अनुपम रूप की चर्चा सुनकर मित्र देव के द्वारा द्रौपदी का अपहरण करा अपने महल में मंगाया। पद्मनाभ ने द्रौपदी के समक्ष काम प्रस्ताव रखा और उसे स्पष्टतः समझा दिया कि उसके पतियों का उस तक पहुंचना असंभव है। द्रौपदी ने चतुराई से काम लिया और पद्मनाभ से छह महीने की अवधि प्राप्त कर ली। वह अपना समय धर्माराधना और तपस्या में व्यतीत करने लगी।
उधर श्री कृष्ण वासुदेव की सहायता से पाण्डवों ने द्रौपदी का भेद प्राप्त कर लिया। श्री कृष्ण के नेतृत्व में पांचों पाण्डव देव सहायता से अमरकंका पहुंचे। पहले दिन पाण्डवों ने पद्मनाभ से युद्ध किया और पराजित हो गए। दूसरे दिन श्री कृष्ण युद्ध में उतरे और उन्होंने पद्मनाभ को रण छोड़ने पर विवश कर दिया। पद्मनाभ द्रौपदी की शरण में पहुंचा और उसने अपने प्राणों की भीख मांगी। द्रौपदी ने कहा, स्त्री का वेश बनाकर श्री कृष्ण के समक्ष जाओ। वे स्त्री पर प्रहार नहीं करते। पद्मनाभ ने वैसा ही किया और ऐसे उसे जीवन की भीख प्राप्त हुई। श्री कृष्ण द्रौपदी और पाण्डवों के साथ अपने देश में लौट आए।
-जैन महाभारत / त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ... जैन चरित्र कोश -
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