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निराश-हताश सेठ सागरदत्त ने एक भिखारी को पर्याप्त धन देकर उसके साथ सुकुमारिका का विवाह कर दिया। पर भिखारी भी प्रथम रात्रि में ही सुकुमारिका को छोड़ कर भाग गया। __इससे सुकुमारिका को घोर आत्मग्लानि हुई। वह संसार त्याग कर गोपालिका नामक आर्या के पास प्रव्रजित बन गई। गुर्वाज्ञा का उल्लंघन कर वह सार्वजनिक स्थलों पर आतापना लेती। एक बार जब वह एक उद्यान में आतापना ले रही थी तो उसकी दृष्टि देवदत्ता नामक गणिका पर पड़ी, जो उद्यान के एक भाग में पांच पुरुषों के साथ आमोद-प्रमोद कर रही थी। इससे सुकुमारिका साध्वी का मन चंचल बन गया। उसने निदान किया, यदि मेरे तप का कोई फल हो तो मैं भी पांच पुरुषों की पत्नी बनूं।
निदान की आलोचना किए बिना ही सुकुमारिका साध्वी आयुष्य पूर्ण होने पर प्रथम स्वर्ग में देवी बनी। स्वर्ग से च्यव कर वह पांचाल देश के कापिल्यपुर नगर के राजा द्रुपद की रानी चुलनी के गर्भ से पुत्री रूप में जन्मी और उसे वहां पर द्रौपदी नाम प्राप्त हुआ। यौवन में द्रौपदी निदान के प्रभाव से पांच-पाण्डवों की पत्नी बनी। (देखिए-द्रौपदी)
-ज्ञाताधर्मकथांग, अध्ययन 16 / त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र पर्व 8 नागसेन
वाचाला नगरी का निवासी एक सद्गृहस्थ, जिसके हाथों से परमान्न प्राप्त कर भगवान महावीर ने अर्धमासोपवास का पारणा किया था।
-महावीर चरित्र नागार्जुनाचार्य
__ जैन आचार्यों की परम्परा के श्रुतधर और सुख्यात आचार्य। संभवतः वे अपने पूर्ववर्ती आचार्य हिमवन्त के शिष्य थे। नंदी स्थविरावली में उनका क्रम आचार्य हिमवन्त के पश्चात् है। नंदी स्थविरावली के अनुसार आचार्य नागार्जुन कालिक श्रुतानुयोग के धारक और हिमवान के सदृश क्षमावान श्रमण थे।
वी.नि. की नवमी शताब्दी में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा। अनेक श्रुतधर मुनि श्रमण-मर्यादा के अनुकूल भिक्षा अप्राप्ति के कारण कालधर्म को प्राप्त हो गए। उस समय श्रुत संरक्षा का गुरुतर दायित्व नागार्जुनाचार्य ने संभाला। वल्लभी नगरी में उन्होंने श्रमण सम्मेलन आहूत किया और श्रुत संकलन का महान कार्य किया। नागार्जुन की अध्यक्षता में आगम वाचना होने के कारण उस वाचना को नागार्जुनीय वाचना संज्ञा मिली। वल्लभी नगरी में वाचना होने से उसे वल्लभी वाचना भी कहा जाता है।
जिस समय नागार्जुनाचार्य के सान्निध्य में आगम-वाचना का यह क्रम चला, लगभग उसी कालखण्ड में मथुरा नगरी में स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में भी आगम वाचना का कार्य हुआ था। उस वाचना को स्कन्दिली वाचना और माथुरी वाचना की संज्ञाओं से जाना जाता है। नागार्जुनाचार्य का जन्म वी.नि. 763 में हुआ। वी. नि. 807 में उन्होंने श्रमण दीक्षा धारण की और वी.नि. 826 में वे आचार्य पद पर आसीन हुए। श्रुत संरक्षा के रूप में जैन धर्म और जैन संघ पर उनका महान उपकार है।
-नंदी सूत्र स्थविरावली नाभिराय
अवसर्पिणी काल के सप्तम् कुलकर और आदि तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान के पिता। (क) नारद
आचार्य क्षीर कदम्बक का छात्र शिष्य, धर्मप्राण, न्यायप्रिय और सत्य का पुजारी पुरुष । (देखिए- वसु राजा) .. जैन चरित्र कोश ...
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