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नभराय राजा
एक राजकुमारी, जिसका पाणिग्रहण राजकुमार सूरप्रभ (विहरमान तीर्थंकर) से हुआ था । (देखिए - सूरप्रभ स्वामी)
नमिनाथ (तीर्थंकर)
इक्कीसवें तीर्थंकर । दसवें देवलोक से च्यवकर भगवान मिथिलानरेश विजय की महारानी वप्रा की कुक्षी में अवतरित हुए। श्रावण कृष्ण अष्टमी को प्रभु का जन्म हुआ । नाम रखा गया नमि । यौवनवय में अनेक कन्याओं से उनका पाणिग्रहण हुआ। पांच हजार वर्षों तक प्रभु ने राज्य किया। तब वर्षीदान देकर आषाढ़ कृष्ण नवमी के दिन प्रभु दीक्षित हो गए। नव मास की साधना में शेष कर्मराशि को भस्मीभूत कर प्रभु केवली बने और धर्मतीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर पद पर अभिषिक्त हुए। प्रभु के उपदेशों से लाखों भव्य जीवों ने आत्मकल्याण का पथ प्रशस्त किया। दस हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु शाश्वत मुक्ति धाम में जा विराजे । -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र 7/11
राजर्षि (प्रत्येक बुद्ध)
सुदर्शन नगर के युवराज युगबाहु और मदनरेखा के पुत्र । दुष्कर्मों के विपाक के कारण युगबाहु उनके मणिरथ के हाथों मृत्यु को प्राप्त हो गए। सगर्भा मदनरेखा ने जंगलों में शरण ली। जंगल में ही उसने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु दुष्कर्मों ने यहां भी माता और नवजात शिशु को एक-दूसरे से अलग कर दिया। वन विहार को आए मिथिलानरेश को वन में सूर्य-सा तेजस्वी बालक प्राप्त हो गया । मिथिलानरेश निःसंतान था। उस बालक को दैव- वरदान मानकर वह अपने साथ ले गया और उसे अपना पुत्र घोषित कर दिया। इस घटना के बाद अनेक शत्रु राजा महाराज पद्मरथ के समक्ष नत हो गए। परिणामतः महाराज ने अपने पुत्र का नाम नमि रखा।
मि युवा हुए तो एक हजार कन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण किया गया। उन्होंने सुदीर्घ काल तक राजपद पर रहते हुए सुशासन किया। किसी समय उनके शरीर में दाहज्वर उत्पन्न हो गया । वैद्यों के परामर्शानुसार उनकी रानियां उनके शरीर पर लेपन करने के लिए चन्दन घिसने लगीं। हाथों में पहने कंगन परस्पर घर्षण के कारण शोर उत्पन्न करने लगे। इस शोर से राजा की व्याधि और अधिक बढ़ गई। उन्होंने इस शोर को बन्द करने का निर्देश दिया। रानियों ने मंगलसूचक एक-एक कंगन हाथों में रख कर शेष कंगन उतार दिए। शोर बन्द हो गया। इससे राजा कुछ शान्ति मिली। उन्होंने पूछा कि यह शोर कैसा था । उन्हें बता दिया गया कि चन्दन घिसने के कारण रानियों के हाथों में रहे हुए कंगन पारस्परिक संघर्षण से शोर उत्पन्न कर रहे थे। राजा ने पूछा कि क्या चन्दन घिसना बन्द कर दिया गया है । मन्त्री ने राजा को सन्तुष्ट करते हुए उत्तर दिया कि चन्दन अभी भी घिसा जा रहा है । परन्तु हाथों में अब एक-एक कंगन रखा गया है। एक अकेला कंगन शोर नहीं करता ।
'अकेला कंगन शोर नहीं करता' यह वाक्य महाराज नमि के लिए चिन्तन - सूत्र बन गया । 'एकत्व भावना' का चिन्तन करते हुए वे प्रतिबुद्ध हो गए और राजपाट तथा मोह - ममत्व का विसर्जन कर मुनि बन गए। एकान्त वन में जाकर ध्यानस्थ हो गए। देवराज इन्द्र यह जानने के लिए कि महाराज नमि का त्याग विषाद से जन्मा है अथवा ज्ञान से, ब्राह्मण वेश धारण कर उनके समक्ष आए और उनकी परीक्षा के लिए विभिन्न आध्यात्मिक प्रश्न पूछे। महाराज नमि का प्रत्येक उत्तर सटीक और वैराग्यपूर्ण पाकर इन्द्र सन्तुष्ट • जैन चरित्र कोश •••
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