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की थी। बाद में श्रुतधर धरसेन आचार्य ने मुनि सुबुद्धि और मुनि नहपान को पुष्पदन्त और भूतबलि, ये नवीन नाम प्रदान किए और उन्हें श्रुत का दान दिया ।
नाग
वैशाली नरेश गणाध्यक्ष महाराज चेटक का रथिक और वरुण नामक वैशाली के सेनापति का पिता । (देखिए - वरुण)
नाग गाथा
भद्दिलपुरवासी एक धनपति, अजितसेनादि देवकी - पुत्रों के पालक पिता । इनकी पत्नी का नाम सुलसा था। (देखिए-सुलसा गाथापत्नी)
- अंतगडसूत्र
(क) नागदत्त
उज्जयिनी नगरी के सेठ सागरदत्त का पुत्र, एक सदाचारी और श्रमणोपासक युवकरन । उसका विवाह उसी नगरी के श्रेष्ठी समुद्रदत्त की पुत्री प्रियंगुश्री से सम्पन्न हुआ । प्रियंगुश्री के भाई का नाम नागसेन था, जो कुटिल और धूर्त था । नागसेन नागदत्त पर विशेष रूप से कुपित था, जिसका कुल कारण इतना ही कि वह अपनी बहन का विवाह अपने एक मित्र के साथ करना चाहता था। पर एक बार जब वह ग्रामान्तर गया हुआ था तो उसके पिता ने प्रियंगुश्री का विवाह सागरदत्त के पुत्र नागदत्त से कर दिया ।
नागदत्त का नगर -भर में मान और सम्मान था । नगरनरेश महाराज धर्मपाल भी उसका सम्मान करते थे। नगर के बाहर उद्यान में मुनिजन पदार्पित होते तो नागदत्त अग्रणी रहकर उपदेश सुनता और मुनियों की आहार आदि सम्बन्धी विशेष सेवाराधना करता था। एक बार उद्यान में मुनि पधारे। नागदत्त प्रवचन सुनने के लिए गया । मुनियों ने धर्म-शुक्ल आदि ध्यान और कायोत्सर्ग पर विशेष प्रवचन दिया। प्रवचन सुनकर उस पर चिन्तन करता हुआ नागदत्त उद्यान से निकला । तत्क्षण उसके अन्तर्मानस में चिन्तन स्फुरण हुआ कि कायोत्सर्ग में अवस्थित बनकर धर्मध्यान करना चाहिए। उद्यान से कुछ ही दूरी पर मार्ग के निकट ही नागदत्त कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर धर्म-ध्यान में लीन हो गया। उधर से नागसेन गुजरा। नागदत्त को कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े देखकर उसके प्रति उसके हृदय में रहा हुआ द्वेषभाव जाग गया। उसने अपने कण्ठ का मणिहार नागदत्त के गले में डाल दिया और कोतवाल के पास जाकर शिकायत कर दी कि उसका बहुमूल्य मणिहार नागदत्त चुराकर भाग गया है। नागसेन ने नागदत्त के भागने की दिशा भी बता दी। कोतवाल उस दिशा में गया । उद्यान के निकट ही उसने नागदत्त को कायोत्सर्ग मुद्रा में देखा। उसके गले में पड़े हुए हार को भी देखा। प्रमाण मौजूद था। फलतः नागदत्त को बन्दी बनाकर कोतवाल ने कारागृह में डाल दिया । नागदत्त ने उपस्थित हुए उपसर्ग को अनुभव किया। उसका हृदय द्वेष और ईर्ष्या की खान संसार से विरक्त हो गया। उसने अपने मन में संकल्प संजो लिया कि यदि उपस्थित उपसर्ग से उसे मुक्ति मिल गई तो वह संसार का त्याग कर प्रव्रज्या धारण कर लेगा ।
दूसरे दिन कोतवाल ने नागदत्त को महाराज धर्मपाल की न्यायसभा में उपस्थित किया । प्रमाण नागसेन के पक्ष में थे और नागदत्त के विपक्ष में । परिणामतः उज्जयिनी के न्यायानुसार महाराज धर्मपाल ने नागदत्त को मृत्युदण्ड प्रदान किया । वधिक ने नागदत्त की हत्या के लिए जैसे ही तलवार का प्रहार उसकी गर्दन पर किया, तलवार पुष्पमाला के रूप में परिणत हो गई। धर्म की जय-विजय हुई। नागदत्त की सभी ने स्तुतियां कीं और नागसेन को सभी ने धिक्कारा । ••• जैन चरित्र कोश -
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