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धिकारी ने धनमित्र की भर्त्सना की और उसे शूली का दण्ड दिया। अपमानित, ताड़ित और तर्जित कर तथा गर्दभ पर बैठाकर धनमित्र को शूली-स्थल पर ले जाया गया।
उधर बीती रात्रि में ही नगर-नरेश का निःसंतान अवस्था में ही निधन हो गया था। पुरातन परम्परानुसार हस्ती-अश्व आदि पंच दिव्य नए राजा के चयन के लिए छोड़े गए थे। हस्ती धनमित्र के समक्ष पहुंच कर ठिठक गया। उसने धनमित्र के कण्ठ में पुष्पमाला डाल दी। धनमित्र के लिए शूली सिंहासन बन गई। सभी ने माना कि धनमित्र की पुण्यों में दृढ़ता के कारण उसके लिए शूली सिंहासन बन गई है, इसलिए लोगों ने उसे 'दृढ़पुण्य' नाम प्रदान किया।
सिंहासन पर बैठने के पश्चात् धनमित्र के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। उसके कुव्यसन समाप्त हो गए। कुव्यसनों का स्थान सद्गुणों ने ले लिया। वह अपने समय का एक न्यायप्रिय और प्रजावत्सल राजा माना गया। जैन श्रमणों के निरन्तर सम्पर्क से वह जिनोपासक बन गया। उसकी सामायिक की श्रद्धा ऐसी उत्कृष्ट बनी कि देवलोकों में भी उसकी अनुशंसा होने लगी। एक बार जब राजा धनमित्र- दृढ़पुण्य सामायिक की आराधना कर रहा था तो एक देव ने उसकी कठिन और कठोर परीक्षा ली। देव ने राजा को सामायिक छोड़ने के लिए कहा । राजा सामायिक में सुदृढ़ रहा तो देव ने देवमाया से उसे अनेक शारीरिक
और मानसिक कष्ट दिए। राजा समता भाव में स्थिर बना रहा। देव ने सहस्रों भार की शिला उठाकर चेतावनी दी कि यदि वह सामायिक का परित्याग नहीं करेगा तो उस शिला को वह उसके सर पर पटक कर उसके सर को चूर-चूर कर देगा। परन्तु धनमित्र ने देव की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। उसकी समता-साधना प्रखर-से प्रखर होती रही। देव ने उसके सर पर शिला का प्रहार कर दिया। राजा का सर चूर-चूर हो गया। इस पर भी राजा के मन में देव के प्रति अणुमात्र भी द्वेष का भाव उत्पन्न नहीं हुआ और न ही अपनी देह के प्रति राग का कण मात्र जगा। उत्कृष्ट समता भाव में सतत विहार से राजा धनमित्र को उसी अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
देव दंग रह गया। उसने अपनी माया का संहरण कर लिया। राजमहल का साधनाकक्ष कैवल्य-कक्ष बन गया। राजा सामायिक के वस्त्रों में था ही। देवों ने उपस्थित होकर कैवल्य महोत्सव मनाया। अनेक वर्षों तक केवली-अवस्था में रहकर जगत के लिए कल्याण का द्वार बनकर धनमित्र मुनि मोक्ष.पधारे।
- -जैन कथा रत्न कोष, भाग-4/ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र-(रत्नशेखर सूरिकृत) (ख) धनमित्र
विनयपुर नगर का श्रेष्ठीपुत्र। धनमित्र के माता-पिता कोटीश्वर थे, पर उनकी मृत्यु के साथ ही वह दरिद्र बन गया। विनयपुर नगर में उदर-पोषण भी दुर्लभ हो गया तो धनमित्र ने उसका त्याग कर दिया। वह राजपुर नगर में जाकर रहने लगा। उसने धनार्जन के अनेक उपाय किए, पर प्रत्येक उपाय में वह असफल ही रहा। एक बार एक ज्ञानी मुनि गजपुर पधारे। धनमित्र मुनि का उपदेश सुनकर प्रभावित हुआ। उसने अपनी स्थिति मुनि के समक्ष स्पष्ट की । मुनि ने उसका पूर्वभव उसे सुनाया, जिसे सुनकर धनमित्र के हृदय में धर्मश्रद्धा का जागरण हो गया। उसने मुनि से श्रावकधर्म अंगीकार कर लिया। वह श्रद्धाभाव से श्रावकधर्म की आराधना करने लगा। उससे उसके अशुभ कर्म नष्ट हो गए और पुण्यकर्म उदय में आए। धनमित्र का व्यापार त्वरित गति से तरक्की करने लगा। कुछ ही समय में वह गजपुर नगर का सर्वाधिक समृद्ध श्रेष्ठी बन गया। वह अपने धन का उपयोग दान और परोपकार में करता था। फलतः उसका यश भी सब ओर वर्धमान बन गया। am जैन चरित्र कोश ...
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