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चंद्रयश स्वयं को दोषी मानता। समता और गुरुभक्ति की पराकाष्ठा पर पहुंचकर मार्ग पर चलते-चलते ही उसे केवलज्ञान हो गया। वह सीधे-सीधे चलने लगा। गुरु ने उसका कारण पूछा तो शिष्य ने गुरु कृपा के फलित होने की बात बता दी। यह जानकर कि वह केवली के कन्धों पर बैठे हैं चंडरुद्राचार्य को गहन पश्चात्ताप हुआ। वे नीचे उतरे। पश्चात्ताप से भावों में निर्मलता उतर आई और वे भी केवली हो गए।
-उत्तराध्ययन वृत्ति चंडशासन
मलय भूमि का एक मित्र-द्रोही राजा। (देखिए-पुरुषोत्तम) चंद्रकुंवर ____ उज्जयिनी नगरी के राजा चंद्रकेतु और महारानी चंद्रवती का पुत्र । एक पुण्यवान, साहसी और शूरवीर राजकुमार । उसका पालन-पोषण तथा उसकी शिक्षा-दीक्षा उसके नाना तारातम्बोल नगर-नरेश महाराज मानतुंग के सान्निध्य में सम्पन्न हुई। नाना के नगर में रहते हुए ही चंद्रकुंवर ने अनेक चमत्कारी विद्याएं सीखीं। वह अपने पुण्य प्रभाव के कारण अल्प कालावधि में ही अनेक विद्याओं का स्वामी बन गया था। परन्तु उसने उन दिव्य विद्याओं का उपयोग कभी पर-पीड़न अथवा अपने ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए नहीं किया। उसने सदैव परोपकार के कार्यों में ही अपने विद्याबल का उपयोग किया। उसने अनेक राजकुमारियों तथा श्रेष्ठि- कन्याओं से पाणिग्रहण किया। उसकी परिणीताओं में शिवमाला नामक एक विद्याधर-पुत्री भी थी, जो परम रूपवान
और अनेकानेक विद्याओं में प्रवीण थी। ___कालान्तर में माता-पिता के आमंत्रण पर चंद्रकुंवर अपने नगर में लौट आया। वहां पर उसने अपने ही नगर के सेठ जिनदत्त की पुत्री चंद्रकला से विवाह किया। चंद्रकला रूप और गुणों का अपूर्व संगम थी। चंद्रकुंवर चंद्रकला को पाकर शिवमाला को भूल गया। शिवमाला स्वयं को उपेक्षिता अनुभव करने लगी। उसके कई प्रयत्नों और आमंत्रणों पर भी जब चंद्रकुंवर ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया तो वह खिन्न हो गई। वह विद्याधरी तो थी ही, फलतः उसने विद्याबल से चंद्रकुंवर को तोता बना दिया और उसे अपने साथ लेकर उज्जयिनी का परित्याग कर अन्यत्र चली गई। इस प्रकार अनेक वर्षों तक चंद्रकुंवर को चंद्रकला और उज्जयिनी से दूर रहना पड़ा। फिर एक समय एक मुनि के उपदेश से शिवमाला को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। उसने चंद्रकुंवर को तोते की देह से मुक्ति दे दी और स्वयं प्रव्रजित हो गई। चंद्रकुंवर अपने नगर में लौट आया और अपने माता-पिता तथा पत्नी चंद्रकला के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
वह युग विद्याओं के चरमोत्कर्ष का युग था। उज्जयिनी नगरी का ही रहने वाला एक काष्ठशिल्पी काष्ठनिर्मित वस्तुओं की अद्भुत कला में निपुण था। एक बार उसने काष्ठनिर्मित एक आकाशगामी घोड़ा चंद्रकुंवर को भेंट किया। यात्रा का शौकीन राजकुमार उस घोड़े को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने उस घोड़े के द्वारा पूरे विश्व का भ्रमण किया और भ्रमण काल में कई राजबालाओं से पाणिग्रहण भी किया।
वृद्धावस्था में महाराज चंद्रकेतु ने अपना राज्य युवराज चंद्रकुंवर को प्रदान किया और प्रव्रजित होकर मोक्षपद पाया। चंद्रकुंवर ने सुदीर्घ काल तक उज्जयिनी पर शासन किया। एक विविध रंगी प्रलम्ब जीवन जीकर जीवन के उत्तर पक्ष में उसने प्रव्रज्या धारण की और सद्गति का अधिकार पाया। चंदन (मलयागिरि)
कुसुमपुर नगर के नरेश। उनकी रानी का नाम मलयागिरि था। उनके दो पुत्र थे, सायर और नीर। .. जैन चरित्र कोश -
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