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करेगी। पोट्टिला ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया और वह साध्वी बन गई।
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कालक्रम से राजा कनकरथ कालधर्म को प्राप्त हो गया। राज्य का उत्तराधिकारी कौन हो, सबके समक्ष यह एक यक्ष प्रश्न था। पूरा भेद अनावृत कर तेतलीपुत्र ने कनकध्वज को राज्यपद पर आरूढ़ करा दिया। इससे राजा और प्रजा में तेतलीपुत्र की दूरदर्शिता को बहुत सम्मान प्राप्त हुआ। अधिक सम्मान पाकर वह सांसारिक वैभव में अत्यधिक गृद्ध बन गया। उस समय उसकी पत्नी पोट्टिला, जिसने साध्वी बनकर स्वर्ग प्राप्त किया था, ने उसे प्रतिबोध देने के लिए उसके और राजा के मध्य दुराव उत्पन्न कर दिया। राजा की नाराजगी से तेतलीपुत्र भयभीत और दुखी हो गया । वह आत्महत्या करने को तैयार हो गया। उस समय पोट्टिल देव ने प्रकट होकर उससे पूछा- प्रधान ! सामने खाई हो, पीछे हाथी का भय हो, दोनों ओर घोर अन्धकार हो, गांव सुलग रहा हो, जंगल धधक रहा हो, ऐसे में बुद्धिमान मनुष्य को क्या करना चाहिए?
तेलीपुत्र ने कहा- ऐसे में मनुष्य को संयम ग्रहण कर लेना चाहिए ।
देव अन्तर्धान हो गया । तेतलीपुत्र को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पंचमुष्टी लोच कर वह मुनि बन गया। घाती कर्मों को मिटाकर उसने केवलज्ञान प्राप्त किया। कनकध्वज को ज्ञात हुआ में पहुंचा और क्षमा मांगने लगा। मुनि ने उसे प्रतिबोध दिया।
वह मुनि चरणों
बहुत वर्षों तक कैवल्य अवस्था में रहने के पश्चात् तेतलीपुत्र मुनि ने मोक्ष प्राप्त किया । तलाशाह
एक जैन श्रेष्ठी । तोलाशाह महाराणा सांगा का परम मित्र था । वह अनन्य जिनानुरागी और निर्धनों के लिए कल्पवृक्ष तुल्य था । उसके द्वार से कभी कोई रिक्त नहीं लौटता था ।
तोषली पुत्र (आचार्य)
जैन परम्परा के एक प्रभावक और दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य । (देखिए - आर्यरक्षित)
त्रिपृष्ठ (वासुदेव)
प्रवहमान अवसर्पिणी काल के प्रथम वासुदेव, पोतनपुर के महाराज प्रजापति के पुत्र, महारानी मृगावती के आत्मज, एक वीरवर पुरुष । अपने प्रखर पराक्रम के बल पर त्रिपृष्ठ ने तीन खण्ड को साधकर और उस युग के सबसे पराक्रमी प्रतिवासुदेव राजा अश्वग्रीव का वध कर वासुदेव का पद पाया।
वासुदेव त्रिपृष्ठ का संगीत में अत्यधिक आकर्षण था। एक बार रात्रि के समय संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। वासुदेव अपनी शैया पर लेटा हुआ संगीत का रस ले रहा था। उसने अपने शैयापालक को आदेश दिया कि जब उसे निद्रा लग जाए तो संगीत का कार्यक्रम बन्द करवा दे। कुछ देर बाद राजा को नींद आ गई। शैयापालक स्वयं संगीत में इस कदर बेभान बना हुआ था कि उसे वासुदेव का आदेश भी विस्मृत हो गया। प्रभात तक संगीत सभा जमी रही। वासुदेव की निद्रा टूटी और उसने संगीत के कार्यक्रम को जारी देखा तो उसे बहुत क्रोध आया। उसने अपने आदेश की अवहेलना करने वाले शैयापालक को इसके लिए दोषी मानते हुए आदेश जारी किया - शैयापालक के कानों को संगीत बहुत प्रिय है, अतः उसके कानों में पिघला हुआ शीशा डाल दिया जाए !
वासुदेव के आदेश का उल्लंघन करने का साहस किसी में न था । शैयापालक के कानों में पिघला हुआ शीशा डाल दिया गया । शैयापालक ने तड़पते हुए दम तोड़ दिया।
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