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बार वह पूर्ण भक्तिपूर्वक प्रार्थना कर मुनि को भिक्षा के लिए अपने घर ले गया। बहुत प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाए गए थे। सभी पदार्थों में से एक-एक कण श्रावक जी ने मुनि के पात्र में डाला और कहा कि उन्होंने उसके घर पधार कर बड़ी कृपा की। इस आहारदान पर मुनि रुष्ट हो गए और बोले कि उसने उनका अनादर किया है। श्रावक ने कहा, महाराज! मैंने आपकी मान्यतानुसार ही आपको आहार दिया है। आप अन्तिम आत्म प्रदेश को ही जीव मानते हो, तो उसी मान्यतानुसार आहार का अन्तिम अंश ही आहार हो सकता है।
मित्रश्री की युक्ति काम कर गई। मुनि ने अपनी भूल को पहचाना और गुरु के पास जाकर आलोचनाप्रतिक्रमण से अपनी आत्मा को शुद्ध किया और पुनः संघ में सम्मिलित हो गया । -ठाणांग वृत्ति 7
तीर्थंकर
तीर्थ की संरचना करने के कारण और लाखों भव्य जीवों को इस तीर (संसार) से उस तीर (मोक्ष) तक पहुंचाने वाले होने के कारण महावीर को उक्त नाम से पुकारा जाता है। "तीर्थंकर" धार्मिक जगत का सर्वोच्च पद है, जिसकी प्राप्ति में उत्कृष्ट तप और उत्कृष्ट पुण्य निमित्त बनते हैं। वर्तमान से तृतीय भव पूर्व 'नन्दन मुनि' के भव में महावीर ने उत्कृष्ट तपस्या की आराधना करते हुए 'तीर्थंकर पद' का अर्जन किया
था ।
तीसभद्र
भगवान महावीर के धर्मसंघ के छट्ठे पट्टधर आचार्य संभूतविजय के एक शिष्य ।
तुलसी (आचार्य)
- कल्पसूत्र स्थविरावली
श्वेताम्बर तेरापंथ धर्म संघ के नवम् युगप्रधान आचार्य ।
आचार्य श्री तुलसी का जन्म वि.सं. 1971 कार्तिक शुक्ला द्वितीया को राजस्थान प्रांत के लाडनूं शहर में हुआ । खटेड़वंशीय श्रीमान् झूमरमल जी आपके पिता और श्रीमती वदनां जी आपकी माता थीं। नौ भाई-बहनों में आपका क्रम आठवां था ।
श्रीमान् झूमरमल का पारिवारिक वातावरण प्रारंभ से ही जैन धर्म-संस्कारों से ओत-प्रोत था । स्पष्ट है कि बालक तुलसी को जन्म से ही धार्मिक संस्कार विरासत में प्राप्त हुए । उनके अग्रज श्री चम्पालाल जी पहले ही विरक्त होकर दीक्षित हो चुके थे । अग्रज की प्रेरणाओं से प्रभावित बनकर आप भी दीक्षा लेने को उत्सुक हुए और वि.सं. 1982 को अपनी बहन लाडो जी के साथ आप आचार्य श्री कालूगणी के धर्मसंघ में दीक्षित हो गए। दीक्षा के समय आपकी अवस्था मात्र ग्यारह वर्ष थी ।
अल्पायु में तेरापंथ धर्मसंघ में प्रव्रजित मुनिवर तुलसी जी में बहुमुखी प्रतिभा का विकास हुआ। संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं का आपने तलस्पर्शी अध्ययन किया । न्याय, दर्शन और व्याकरण के आप अध्येता बने । शीघ्र ही संघ और समाज में आपने एक विशिष्ट स्थान बनाया। परिणामतः मात्र बाईस वर्ष की अवस्था मे ही आप तेरापंथ धर्मसंघ के नवम् आचार्य नियुक्त किए गए। आप के अनुशासन में तेरापंथ धर्मसंघ ने अत्युच्च ऊंचाइयों का स्पर्श किया। अध्ययन, अनुशासन, साहित्य और ध्यान के क्षेत्र में तेरापंथ संघ ने काफी प्रगति की । अणुव्रत के प्रचार में आपने महान श्रम किया और देश में अणुव्रत अनुशास्ता के रूप में विख्यात हुए ।
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