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आराधना शुरू कर दी। उसकी आराधना में आराधना का भाव शून्य और आकांक्षा का भाव प्रधान था। फलतः अनेक दिन उपवासी रहकर भी उसकी विपन्नता न मिटी।
कांक्षा के साथ की गई आराधना व्यर्थ और निष्फल ही सिद्ध होती है। कांक्षारहित बनकर की गई आराधना शीघ्र ही फलवती हो जाती है।
-कथा रत्न कोष, भाग-1
दुर्गंधा
एक वेश्यापुत्री, जिसका पालन-पोषण एक अहीरन ने किया और जो किशोरावस्था प्राप्त करते ही मगधदेश की महारानी बनी। दुर्गंधा का उत्थान-पतनमय परिचय-पत्र निम्नोक्त है
एक बार भगवान महावीर राजगृह नगरी में पधारे। महाराज श्रेणिक दर्शनों के लिए निकले। नगर के बाहर एक स्थान पर तीव्र दुर्गन्ध उठ रही थी। राजा के आदेश पर अनुचरों ने दुर्गन्ध का कारण खोज निकाला
और राजा को बताया, महाराज! एक सघजात कन्या उकुरड़ी पर पड़ी है। उसी के शरीर से यह दुर्गन्ध उठ रही है।
राजा उस नवजात कन्या के जीवन पर विचार करता हुआ भगवान के पास पहुंचा। प्रवचन के पश्चात् राजा ने प्रभु से उस दुर्गन्धा कन्या के बारे में पूछा। भगवान ने फरमाया-राजन्! तुम्हारे ही राज्य के अन्तर्गत शालीग्राम में यह कन्या पूर्वजन्म में एक सेठ की पुत्री थी। एक बार जब उसका विवाहोत्सव हो रहा था तो वह स्नान करने के पश्चात् उत्तम वस्त्राभूषणों से सज्जित बनकर तथा विविध सुगन्धित लेपों से युक्त बनकर शैया पर बैठी थी। उसी समय कुछ मुनि भिक्षा के लिए उसके घर आए। पिता के कहने पर वह आहार देने के लिए मुनियों के निकट आई। मुनियों के प्रस्वेद-युक्त देह और मलिन वस्त्रों को देखकर उस कन्या का हृदय घृणा से भर आया। उसी घृणा का यह फल हुआ कि आयुष्य पूर्ण कर वह कन्या यहां राजगृह नगरी में एक वेश्या के गर्भ में उत्पन्न हुई। इसके गर्भ में आते ही वेश्या को तीव्र उदरशूल रहने लगा। वेश्या ने गर्भ गिराने के अनेक यत्न किए पर वह सफल नहीं हुई। इसे जन्म देते ही वेश्या ने उकुरड़ी पर फिकवा दिया। उसी कन्या को तुमने आज देखा है।
कर्म-कथा सुनकर श्रेणिक की जिज्ञासा वर्धमान हुई। उसने पूछा, भंते ! इस कन्या का भविष्य क्या होगा? भगवान ने फरमाया, राजन्! भविष्य में यह कन्या तुम्हारी पटरानी बनेगी। राजा का आश्चर्य और कौतूहल बढ़ा। उसने पूछा, प्रभु ! मैं इसे कैसे पहचानूंगा? भगवान ने कहा, राजन्! तुम्हारी जो रानी तुम्हें घोड़ा बनाकर तुम्हारी पीठ पर सवार हो जाए, समझ लेना वह यही कन्या है!
कालान्तर में प्रभु का कथन अक्षरशः सिद्ध हुआ। कौमुदी-महोत्सव के अवसर पर राजा श्रेणिक अहीरी द्वारा पालित कन्या-जो किशोरी हो चुकी थी और नवयौवना दिखाई देती थी, पर मुग्ध हो गया और उससे विवाह रचा लिया। एक बार राजा जब अपनी रानियों के साथ कोई खेल खेल रहा था। खेल की शर्त निर्धारित की गई थी कि जो हारेगा, उसे घोड़ा बनकर विजयी को पीठ पर बैठाना होगा। खेल में राजा हार गया। अन्य रानियों ने तो राजा की पीठ पर अपना वस्त्र रखकर नियम निभा लिया पर अहीर कन्या ने वैसा नहीं किया। वह उछलकर राजा की पीठ पर चढ़ बैठी। उसी क्षण राजा को प्रभु का वचन स्मरण हो आया। राजा बोला, आखिर है तो वेश्या पुत्री ही!
रानी को यह बात चुभ गई। उसके पूछने पर राजा ने पूर्वजन्म से लेकर वर्तमान तक का पूरा कथानक कह दिया। इससे रानी प्रतिबुद्ध हो गई और आर्या चंदना के पास प्रव्रजित होकर तप-संयम में संलग्न बन
गई।
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