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देवानंदा धन्य हो गई। उसने उसी क्षण अपने पति सहित महावीर से प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और समस्त कर्म क्षय कर मोक्ष में गईं।
-भगवती 1/33 देवी
अठारहवें अरिहंत अरनाथ की जननी। देवेंद्र मुनि (आचार्य)
श्री वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य एवं सुप्रसिद्ध साहित्य मनीषी मुनीश्वर।
आपका जन्म उदयपुर (राजस्थान) नगर में वि.सं. 1988 कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, तदनुसार 8 नवम्बर, 1931 को धनतेरस के दिन श्रीमान जीवनसिंह जी बरड़िया की धर्मपत्नी श्रीमती तीजकुंवर की रत्नकुक्षी से हुआ। धनतेरस के दिन जन्म होने से आपका नाम धन्नालाल रखा गया।
जब आप मात्र इक्कीस दिन के थे तो आपके पिता जी का निधन हो गया। माता तीजकुंवर ने इस वज्रापात को सहकर भी आप का पूरे दायित्व से पालन किया। गोद से ही उन्होंने आपको उत्तम संस्कारों से अनुप्राणित किया। उसी के फलस्वरूप मात्र नौ वर्ष की अवस्था में ही आप महावीरों के मार्ग पर बढ़ चले। .सं. 1997 में आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के चरणों में दीक्षा ग्रहण कर ली।
आपने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश आदि भाषाओं का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आगम एवं आगमेतर साहित्य का भी सांगोपांग अध्ययन किया। बचपन से ही आप लेखन में रुचि रखते थे। क्रम से आप का लेखन जैन जगत में प्रामाणिक माना जाने लगा। आपने शताधिक ग्रन्थों का लेखन और संपादन किया। आपके ग्रन्थ शोधपूर्ण और प्रवाहमयी सरल भाषा में हैं।
सन् 1987 में पूना नगर में आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के सान्निध्य में बृहद् साधु सम्मलेन समायोजित हुआ। उसी अवसर पर 12 मई को आचार्य देव ने आपको उपाचार्य नियुक्त किया।
आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आप श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य बने। आपके शासन काल मे संघ का चहुंमुखी विकास हुआ। 26 अप्रैल 1999 को मुंबई में आपश्री का स्वर्गवास हुआ। देवेंद्र सूरि (आचार्य)
वी.नि. की 18वीं सदी के एक विद्वान जैन आचार्य। कर्मग्रन्थों के रचनाकार के रूप में वे विशेष विश्रुत हैं। कर्मग्रन्थ नामक कर्मविज्ञान के पांच ग्रन्थों की रचना उन्होंने की थी। उनके अतिरिक्त भी सिद्धपंचाशिका, सूत्रवृत्ति, धर्मरल वृत्ति, श्रावक दिनकृत्य सूत्र, सुदर्शन चरित्र आदि कई ग्रन्थों के वे प्रणेता माने जाते हैं। ___आचार्य देवेंद्र सूरि अपने समय के एक प्रभावक आचार्य थे। वे कई प्राचीन भाषाओं के मर्मज्ञ, लेखक
और कुशल उपदेष्टा भी थे। उनके व्याख्यानों से प्रभावित होकर कई मुमुक्षुओं ने अर्हत् धर्म में दीक्षा ली थी। वी.नि. 1797 में उनका स्वर्गारोहण हुआ। दौलतराम कासलीवाल (साहित्यकार)
विक्रम सं. 1745 में आपका जन्म बसवा ग्राम में खण्डेलवाल जाति में हुआ। गोत्र से आप कासलीवाल थे। आपके पिता का नाम आनन्दराम था। अपनी विद्वत्ता के कारण आप ‘पण्डित' कहलाते थे। ..258
- जैन चरित्र कोश...