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जयसिंह सूरि (आचार्य)
अंचल गच्छ के द्वितीय पट्टधर आचार्य। अंचल गच्छ के संस्थापक आर्य रक्षित सूरि मुनि जयसिंह के दीक्षा गुरु थे। आचार्य जयसिंह सूरि वी.नि. की 18वीं सदी के पूर्वार्ध के एक विद्वान जैन आचार्य के रूप में ख्यात हुए। _ आचार्य जयसिंह सूरि का जन्म कोंकण प्रदेश के प्रतिष्ठित नगर सोपारक में हुआ था। उनके पिता का नाम दाहड़ और माता का नाम नेढ़ी था। आचार्य जयसिंह का गृहस्थावस्था का नाम जासिग था। __संतों से जम्बूचरित्र का श्रवण करते हुए जासिग विरक्त हुए और माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर मुनि जीवन में दीक्षित हुए। शास्त्रों का अध्ययन कर वे एक विद्वान मुनि बने और कालक्रम से आचार्य पद पर आसीन हुए। अंचल गच्छ के वे अति प्रभावशाली आचार्य माने जाते हैं। दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर उन्होंने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। अनेक मुमुक्षु उनके शिष्य भी बने। वी.नि. 1728 में उनका स्वर्गवास हुआ। (क) जयसुंदरी
सिन्धुदेश की राजधानी पाटणपुर नगर के धनी श्रेष्ठी सुन्दरशाह की अर्धांगिणी, एक बुद्धिमती, उदार हृदया और पतिव्रता वीरांगना । वह द्वादशव्रत-धारिणी श्राविका थी। उसके पति ने भी द्वादशव्रत धारण किए थे, पर व्रत और धर्म पर उसकी आस्था नाम मात्र को ही थी। जयसुंदरी तन-मन-प्राण से धर्म को समर्पित थी और किसी भी याचक को अपने द्वार से निराश नहीं लौटने देती थी। एक बार एक परिव्राजक ने जयसुंदरी के द्वार पर अलख जगाई तो जयसुंदरी ने एक बड़ी झारी अनाज की भरकर परिव्राजक की झोली में डाल दी। सुन्दरशाह को यह बहुत बुरा लगा और उसने पत्नी को आदेश दिया कि भविष्य में उसके धन-धान्य का वैसा दुरुपयोग न हो। पत्नी ने दान की महिमा का निरूपण किया। पति-पत्नी के मध्य का यह छोटा सा विवाद इतना बड़ा बन गया कि सेठ ने पत्नी जयसुंदरी को अपने घर से निकाल दिया और ताना दिया कि अब देखता हूं कैसे तू दान देगी!
जयसुंदरी बुद्धिनिधान थी। उसने निश्चय कर लिया कि वह अपने पति को दान धर्म की महिमा दिखाएगी। नगर के बाह्य भाग में झोंपड़ी डालकर जयसुंदरी धर्मध्यानपूर्वक जीवनयापन करने लगी। पत्नी को घर से निकाल देने के कारण सेठ को नागरिकों की निन्दा का पात्र बनना पड़ा। इससे क्षुब्ध होकर सेठ अपनी चल-अचल संपत्ति को बेचकर एक अन्य नगर में जाकर रहने लगा। जयसुंदरी का स्थान ही बदला था, भाग्य नहीं। भाग्य से उसे पर्याप्त मात्रा में तेजमंतरी रेत मिल गया। पाटणपुर में तेजमंतरी रेत का मूल्य कोई नहीं जानता था। सो एक विदेशी व्यापारी को तेजमंतरी रेत बेचकर जयसुंदरी ने आशाधिक धन प्राप्त किया। उसने अपने पति द्वारा बेचे गए अपने घर को पुनः खरीद लिया और दोनों हाथों से दान देते हुए धर्मध्यानपूर्वक जीवन यापन करने लगी। ___ एक बार नगर के राजा के इकलौते पुत्र को सर्प ने डस लिया। मांत्रिकों और गारुड़िकों की कतार लग गई। पर कोई भी राजकुमार को विषमुक्त नहीं बना सका। राजा की आशाएं डूबने लगी तो उसने घोषणा कराई कि जो भी व्यक्ति राजकुमार को विषमुक्त करेगा, उसे यथेच्छ ईनाम दिया जाएगा। जब कोई भी राजकुमार को स्वस्थ नहीं कर पाया तो जयसुंदरी ने राजकुमार को विषमुक्त करने का निश्चय किया। वह
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