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इन्होंने सोलह वर्ष पर्यंत संयमाराधना करने के पश्चात् मासिक संलेखना के साथ शत्रुजय पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया।
-अन्तगड सूत्र, वर्ग 4, अध्ययन 1 (क) जितशत्रु ___ भद्रपुर नरेश जिनचंद्र का पुत्र, धीर, वीर और कला-कोविद राजकुमार। जिनचंद्र का एक अन्य पुत्र भी था, जिसका नाम जिनदत्त था। जिनदत्त बड़ा और जितशत्रु छोटा था। जितशत्रु का जन्मना नाम सूरदत्त था। उसके साहस, शौर्य और शत्रुओं को विजित कर लेने के कारण उसका उक्त गुणसम्पन्न नाम लोक में विश्रुत हुआ था।
जिनदत्त और सूरदत्त-दोनों कुमारों की शिक्षा-दीक्षा साथ-साथ हुई। पर जिनदत्त स्वभाव से ही आलसी, भोगप्रिय और भीरु था। परिणामतः वह पूरे मन से शिक्षाएं भी नहीं सीख पाया था। पर परम्परानुसार युवराज का पद उसे ही प्राप्त हुआ। एक बार एक म्लेच्छ राजा ने भद्रपुर पर आक्रमण किया। महाराज जिनचंद्र ने जिनदत्त को युद्ध का नेतृत्व प्रदान किया। जिनदत्त आधे-अधूरे मन से युद्धक्षेत्र में गया और पराजित हो गया। इससे महाराज जिनचंद्र का खेदखिन्न हो जाना स्वाभाविक था। महाराज स्वयं युद्ध क्षेत्र में जाने की तैयारी करने लगे। कुमार सूरदत्त ने पिता से प्रार्थना की कि युद्धक्षेत्र में जाने की अनुमति उसे दी जाए। महाराज का विचार था कि सूरदत्त बालक है और वह बलवान शत्रु का सामना नहीं कर पाएगा। इसी विचार से उन्होंने सूरदत्त की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। पर सूरदत्त उत्साही युवक था और वह अपने कर्तव्य को भली-भांति पहचानता था। उसने पिता से पुनः आग्रह भरी प्रार्थना की और निवेदन किया कि योग्य पुत्रों के होते हुए पिता को युद्ध में जाना पड़े, यह पुत्रों के लिए अशोभनीय है। उसे एक अवसर दिया जाए। उसे विश्वास है कि वह उनके विश्वास को खण्डित नहीं होने देगा। आखिर राजा ने सूरदत्त को युद्ध में जाने की अनुमति प्रदान कर दी। सूरदत्त अपनी थोड़ी सी सेना के साथ विशाल शत्रुसेना पर टूट पड़ा। सूरदत्त के साहस और शौर्य के समक्ष शत्रुसेना भाग खड़ी हुई। सूरदत्त विजयी होकर लौटा। महाराज जिनचंद्र के हर्ष का पार न रहा। सूरदत्त का राजा और प्रजा ने मिलकर अभिनन्दन किया।
सूरदत्त के शौर्य और साहस की प्रशस्तियां व्यक्ति-व्यक्ति के मुख पर चढ़ गईं। दुर्जेय शत्रु को जीत लेने के कारण उसे 'जितशत्रु' नाम से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे लोग भूल ही गए कि राजकुमार का नाम सूरदत्त है। सब उसे 'जितशत्रु' के गुणनिष्पन्न नाम से पुकारने लगे। राजा ने अपने बड़े पुत्र जिनदत्त का युवराज पद निरस्त करके जितशत्रु को युवराज पद प्रदान कर दिया। इससे जिनदत्त को बहुत खेद हुआ। वह मन ही मन जितशत्रु से ईर्ष्या भाव रखने लगा, पर प्रकट रूप से वह उससे स्नेह ही करता था। ___अक्सर राजसभा में जितशत्रु के शौर्य की प्रशंसा होती थी। एक बार सभी सभासद जितशत्रु के शौर्य
और साहस की प्रशंसा कर रहे थे। जिनदत्त भी सभा में उपस्थित था। उसने वचनों का कुशल संयोजन करते हुए कहा, निःसंदेह जितशत्रु कुशल और साहसी योद्धा है, पर जिनमत के अनुसार तो असली योद्धा की परिभाषा कुछ और ही है। जितशत्रु ने अग्रज से पूछा, तात! जिनमत में असली योद्धा की परिभाषा क्या है? जिनदत्त ने कहा, प्रिय अनुज! जिनमत का कथन है-लाखों योद्धाओं को परास्त कर देने वाला योद्धा सच्चा योद्धा नहीं है। सच्चा योद्धा तो वह है, जो क्रोधादि कषायों से रंजित अपनी आत्मा को जीत लेता है। स्वयं को जीतने वाला ही वस्तुतः 'जितशत्रु' कहलाने का अधिकारी है। ___ जिनदत्त का तीर निशाने पर लगा। उसकी बात सुनकर जितशत्रु उसी क्षण अपने आसन से उठ खड़ा ... 198 ..
- जैन चरित्र कोश ...