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तरंगवती
कौशाम्बी नगरी के नगर सेठ ऋषभदत्त की पत्नी सुनन्दा की आत्मजा। ऋषभदत्त और सुनन्दा अनन्य श्रमणोपासक थे। सामायिक, संवर, नियम, व्रत आदि पर उनकी अगाध आस्था थी। परिणामतः जैन धर्म के संस्कार तरंगवती को विरासत में प्राप्त हुए थे। कौशाम्बी नगरी से थोड़ी ही दूरी पर श्रेष्ठी ऋषभदत्त का विशाल और भव्य पुष्पोद्यान था। उद्यान के मध्य में एक सरोवर था, जिसमें अनेक जातियों के पक्षी तैरा करते थे। एक दिन तरंगवती अपनी एक विश्वस्त सखी के साथ अपने पुष्पोद्यान में भ्रमण के लिए गई। सरोवर में एक चक्रवाक युगल को जलक्रीड़ा और प्रेमालापरत देखकर तरंगवती को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने अपने ज्ञान में देखा कि पूर्वजन्म में एक जंगल में स्थित सरोवर में वह भी एक चक्रवाकी थी और अपने मित्र चक्रवाक के साथ ऐसे ही प्रेमालाप करती थी। एक दिन एक शिकारी के बाण से चक्रवाक की मृत्यु हो गई। अपने प्रिय की मृत्यु पर चक्रवाकी के क्रन्दन से पूरा वातावरण करुणामय बन गया। शिकारी भी करुणा में भीग कर जार-जार रोया। फिर उसने एक चिता जलाकर उसमें चक्रवाक के शव को रख दिया। चक्रवाकी भी उसी चिता में जल मरी।
तरंगवती ने देखा कि चक्रवाकी का शरीर छोड़कर मैं तरंगवती बनी हूं। तरंगवती अपने पूर्वजन्म के साथी चक्रवाक से मिलने के लिए व्याकुल हो गई। पर उसे कैसे पाए, कैसे जाने कि वह कहां है, उसके समक्ष यह एक अबूझ पहेली थी। आखिर बहुत चिन्तन-मनन करने पर उसे एक युक्ति सूझी। उसने अपने पूर्वभव की स्थिति को स्पष्ट करने वाले कुछ चित्र बनाए और कौमुदी महोत्सव के दिन अपनी दासी से वे चित्र उस बाजार में रखवाए, जहां से प्रायः सभी लोग गुजरते थे। कौशाम्बी के सार्थवाह धनदेव का पुत्र पद्मदेव बाजार से गुजरा। चक्रवाक-युगल के चित्रों को देखकर उसके कदम ठिठक गए। एकटक हो वह उन चित्रों को देखने लगा और देखते-देखते मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसके मित्रों ने उसके मुख पर जलबिन्दु डालकर उसे सचेत किया। सचेत होकर 'हा चक्रवाकी' कहकर वह रोने लगा।
सखी ने जाकर तरंगवती को अपनी सफलता की बात बताई। सखी ही तरंगवती और पदमदेव के मध्य परिचारिका बनी। पद्मदेव की प्रार्थना पर उसका पिता धनदेव तरंगवती के पिता ऋषभदत्त के पास अपने पुत्र के लिए उसकी पुत्री का हाथ मांगने आया। परन्तु ऋषभदत्त समुद्री व्यापारी के साथ अपनी पुत्री का विवाह इसलिए नहीं करना चाहता था कि उसकी पत्री को पनः-पनः पति-विरह की प्रताडना झेल पडेगी। इसी विचार से ऋषभदत्त ने धनदेव का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। तरंगवती और पदमदेव को यह जानकर बड़ा कष्ट हुआ कि उनका विवाह नहीं होगा। सो एक रात्रि में वे दोनों ही कौशाम्बी से पलायन कर गए। मार्ग में उन्होंने गंधर्व विवाह कर लिया। जंगल में उनको अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़े। डाकुओं का बन्दी बनना पड़ा, पर अपने पुण्य कर्मों के कारण वे सुरक्षित रहे।
उधर सेठ ऋषभदत्त और धनदेव को उनके पुत्री-पुत्र के पूर्वजन्म के स्नेह-सम्बन्ध ज्ञात हुए तो वे अधीर ... 226
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