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दिशा में यह कहते हुए फैंक दिया कि जो मेरी बात न माने, वह मेरे साथ क्यों रहे।
जयदेव जानता था कि वैसा ही कुछ होगा, और हो भी गया। मणि प्राप्त कर जयदेव अपने नगर की दिशा में बढ़ चला। मार्ग में महापुर नगर में वह ठहरा। वहां पर उसने नगर सेठ की रत्न-परीक्षा सम्बन्धी समस्या सुलझाई, जिससे चमत्कृत होकर नगरसेठ ने उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
चिन्तामणि रल और नारीरत्न के साथ जयदेव अपने नगर पहुंचा और नगर के सभ्य श्रेष्ठियों तथा राजा द्वारा अभिनन्दित बना। उसका रत्न भण्डार समस्त रत्नों में प्रधान रत्न-चिन्तामणि रत्न से चमचमा उठा, समृद्ध हो गया।
-धर्मरत्न प्रकरण, गाथा 3 जयमल्ल जी (आचार्य)
__ आपका जन्म सं. 1765 में राजस्थान में मेड़ता के निकटस्थ लाम्बिया ग्राम में हुआ। श्रीमान मोहन लाल जी और श्रीमती महिमा देवी आपके जनक-जननी का नाम था। लक्ष्मीदेवी नामक कन्या से आपका विवाह हुआ।
एक बार आप व्यापारिक कार्य के लिए मेड़ता गए। उस समय आचार्य श्री भूधर जी वहां विराजमान थे। आप उनका प्रवचन सुनने गए। आचार्य श्री ने सुदर्शन श्रेष्ठी की ढाल सुनाई। प्रवचन का आपके हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। आपने ब्रह्मचर्य के महत्व को समझा। उसी दिन से आपने आजीवन के लिए दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। आखिर सं. 1787 में मेड़ता में ही आपने आचार्य भूधर जी से संयम व्रत अंगीकार कर लिया। ___मुनि धर्म में प्रव्रज्या के क्षण से ही आपने स्वयं को तप और अध्ययन में नियोजित कर दिया। आपने निरन्तर 16 वर्षों तक एकान्तर तप किया। आपकी स्मरण शक्ति भी अद्भुत थी। थोड़े ही समय में आपने प्रतिक्रमण कण्ठस्थ कर लिया। कप्पिया, कप्पवडसिया, पुफिया, पुप्फचूलिया और वन्हिदशा-ये पांच आगम आपने एक प्रहर में कण्ठस्थ कर लिए थे।
आपका आचार अत्यन्त कठोर था। आचार्य भूधर जी का स्वर्गवास वि.सं. 1804 में हुआ। उस समय आपने एक कठिन प्रतिज्ञा धारण की-कि मैं आजीवन लेटकर नहीं सोऊंगा। निरन्तर पचास वर्षों तक आप श्री लेटे नहीं। बैठे-बैठे ही स्वल्प निद्रा ले लिया करते थे।
सं. 1805 में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आप एक प्रभावशाली आचार्य हुए। कालान्तर में आपका मुनिसंघ आपके नाम से ही प्रसिद्ध हुआ।
आपश्री के जीवन में जहां असंख्य सद्गुण थे, वहीं आप में एक अति विशिष्ट गुण था कवित्व का। आपकी काव्य कला अद्भुत थी। भक्ति की रसधारा आपके काव्य से प्रवाहित हुई। आपकी अनेक रचनाएं आज भी जन-जन की जिह्वा पर चढ़ी हुई देखी-सुनी जाती हैं।
आपके शिष्यों की संख्या 50 से अधिक थी।
सं. 1853 में 31 दिन के संथारे के साथ आप ने परलोक के लिए प्रस्थान किया। जयवन्तसेन
विशालपुर नगर का एक नीति-निपुण और चतुर नरेश। एक बार राजा को अपनी विद्वत्ता और चातुर्य पर घमण्ड हो गया। घमण्ड व्यक्ति के पतन का कारण बनता ही है। राजा अपनी राज्यसभा में अपने चातुर्य ... 190 ..
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