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संकल्प के साथ वहां आया है। राजा चंद्रसेन के कुछ ही दिन के सामीप्य से उसके साहस और संकल्प से परिचित हो चुका था। उसने राक्षस-वध में अपने पूर्ण सहयोग का वचन चंद्रसेन को दिया। सुविचारित योजनानुसार चंद्रसेन उस शैया पर चादर तानकर सो गया, जिस शैया पर राजकुमारी चंद्रावती सोती थी। संध्या समय राक्षस आया और चंद्रसेन को चंद्रावती समझकर शैया सहित उठा ले गया। अपने निवास पर पहुंचकर राक्षस ने शैया रख दी। प्रतिदिन की भांति राक्षस ने अपनी प्रणय-प्रार्थना प्रस्तुत की। राक्षस सावधान नहीं था, चंद्रसेन पूरी तरह तैयार और सावधान था। राक्षस द्वारा चादर खींचते ही चंद्रसेन उछलकर उसकी छाती पर सवार हो गया। बलवर्द्धिनी विद्या से उसका बल निरंतर वर्धमान बनता गया। राक्षस को उसने परास्त कर दिया और उससे वचन ले लिया कि वह भविष्य में किसी भी निरपराध प्राणी को परेशान नहीं करेगा।
राक्षस की पराजय और चंद्रसेन की जय का संवाद कंचनपुर पहुंचा तो सब ओर हर्ष व्याप्त हो गया। राजा ने चंद्रावती का विवाह चंद्रसेन से किया और उसे आधा राज्य भी प्रदान किया। कुछ दिन वहां रहने के पश्चात् चंद्रसेन अपनी तीन पत्नियों और विशाल वैभव और सेना के साथ अपने नगर में आया। भाई, भाभी और पुरवासियों ने उसका भावभीना स्वागत किया।
सुदीर्घ काल तक राजसी सुख भोगते हुए चंद्रसेन ने जीवन के अंतिम भाग में प्रवेश किया। जीवन के अंतिम भाग में उसने समस्त अर्जन को विसर्जित करके त्याग प्रधान जीवन की आराधना की और उत्तम गति का अधिकार प्राप्त किया। चंद्रानन स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
बारहवें विहरमान तीर्थंकर, जो वर्तमान में धातकीखण्ड द्वीप के अन्तर्गत नलिनावती विजय में विराजमान हैं। उक्त विजय में स्थित वीतशोका नामक नगरी में प्रभु का जन्म हुआ। महाराज वल्मीक और महारानी पद्मावती प्रभु के जनक और जननी थे। यौवनावस्था में लीलावती नामक राजकन्या से प्रभु का पाणिग्रहण हुआ। प्रभु वृषभ चिह्न से युक्त हैं। तिरासी लाख पूर्व की अवस्था तक प्रभु गृहवास में रहे। वर्षीदान देकर मुनिव्रत धारण किया और केवलज्ञान को साधा। तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर बने। चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु मोक्ष जाएंगे। (क) चंद्रावतंसक
वैशाली की राजपरम्परा के एक धर्मात्मा राजा।
चंद्रावतंसक जहां कर्मशूर थे, वहीं धर्मशूर भी थे। श्रावक मर्यादानुसार वे अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णमासी को पौषधोपवास की आराधना किया करते थे। __एक बार अमावस्या को राजा ने पौषध किया। संध्या ढलते-ढलते अमा का घोर तिमिर अपने आगमन की सूचना देने लगा था। पौषधशाला में महाराज चंद्रावतंसक खड़े होकर ध्यान मुद्रा में लीन हो गए। उधर अंधेरा घिरते देख दासी ने कक्ष के कोने में रखे दीपक को प्रज्ज्वलित कर दिया। महाराज की दृष्टि दीपक की लौ पर ठहर गई। अन्तः प्रेरणा से राजा ने संकल्प किया-जब तक दीप जलता रहेगा, तब तक मैं यथारूप कायोत्सर्ग में लीन रहूंगा।
घड़ी और मुहूर्त बीते। दीप का तेल चुकने लगा। लौ डगमगाने लगी। सेवानिष्ठ दासी ने इस विचार से कि महाराज की समाधि भंग न हो, दीप को पुनः तैल से भर दिया। महाराज के मन में ध्यान का दीप और ... जैन चरित्र कोश ..
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