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को अक्षय बना दिया था, जिससे वह मुक्त हस्त से दान देकर भी सदैव सम्पन्न बना रहा। उसके पास पारस रहा हो या न रहा हो, पर उसके उत्कृष्ट भावों में पारस का चमत्कार अवश्य था, जिनके कारण वह दोनों हाथों से सदैव बांट कर भी समृद्ध बना रहा। ___कहते हैं कि अकाल के भीषण दौर में उसने कई नरेशों को उनकी प्रजा के भोजन के प्रबन्ध के लिए हजारों-हजार मण धान्य निःशुल्क दिया था। जगडूशाह की इस दानवीरता पर गद्गद होकर गुजरात नरेश बीसलदेव ने उसका बहुत सम्मान किया और उससे विनम्र निवेदन किया था कि वह उन्हें प्रणाम नहीं करेगा, क्योंकि वह स्वयं प्रणम्य है। जगच्चंद्र (आचार्य) ____एक उत्कृष्ट तपस्वी और क्रियोद्धारक जैन आचार्य। आचार्य जगच्चंद्र का विमल सुयश जगत में तारामण्डल के मध्य चंद्रमा के समान था। बड़गच्छ के मणिरत्न सूरि उनके दीक्षा गुरु थे। __आचार्य जगच्चंद्र का जन्म पोरवाल वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम पूर्णदेव था। जगच्चंद्र तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। उनका गृहनाम जिनदेव था। दीक्षा लेने के पश्चात् मुनि जिनदेव ने स्वयं को तप और शास्त्राध्ययन में नियोजित किया और वे कुछ वर्षों में ही संघ के एक विद्वान मुनि के रूप में मान्य हुए। संघ में व्याप्त शिथिलाचार से जगच्चंद्र मुनि का मन खिन्न था। उन्होंने क्रियोद्धार के लिए आजीवन आयंबिल तप का विशेष संकल्प किया। उनकी तपस्विता से प्रभावित होकर मेवाड़ नरेश जैतसिंह ने उनको 'तपा' नामक उपाधि प्रदान की। इस उपाधि के कारण ही आचार्य जगच्चंद्र का गच्छ 'तपागच्छ' नाम से जाना गया।
गुजरात के महामात्य बन्धुयुगल वस्तुपाल और तेजपाल आचार्य जगच्चंद्र के प्रति विशेष निष्ठावान थे। उनकी प्रार्थना पर आचार्यश्री ने गुजरात की यात्रा की थी। मेवाड़ प्रान्त में एक अवसर पर तीस विद्वानों के साथ आचार्य श्री ने शास्त्रार्थ किया और विजय प्राप्त की।
आचार्य जगच्चंद्र के सहोदर वरदेव के बड़े पुत्र का नाम साढ़ल था। साढ़ल के दो पुत्रों ने आचार्य श्री के चरणों में दीक्षा धारण की थी। साढ़ल के ज्येष्ठ पुत्र का नाम धीणाक था। धीणाक एक दृढ़धर्मी श्रावक था। जैन धर्म और जैन साहित्य के प्रति उसके हृदय में अगाध श्रद्धा थी। साहित्य सुरक्षा के लिए उसने तन, मन और धन से अपना सहयोग दिया। .वी.नि. 1757 में मेवाड़ प्रान्त के वीरशालि नामक ग्राम में आचार्य जगच्चंद्र का स्वर्गवास हुआ।
-आख्यानमणि कोष, सवृत्ति, प्रस्तावना
जनक
मिथिला के राजा और सीता के पिता। जनक एक धर्मनिष्ठ, न्यायनीति परायण और प्रजा का पुत्रवत् पालन करने वाले नरेश थे। जैन रामायण ने उन्हें जहां एक धर्मात्मा और न्याय नीति सम्पन्न नरेश माना है, वहीं वैदिक रामायण और पुराणों में जनक जी को विदेह, राजर्षि आदि अलंकरणों से अलंकृत कर उनकी श्रेष्ठता स्वीकार की है। (देखिए-जैन रामायण) जन्हुकुमार ___एक धीर, वीर युवक। जन्हु कुमार द्वितीय चक्रवर्ती सगर का ज्येष्ठ पुत्र था। वह एक महान पितृभक्त .. 186 ...
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