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चित्रश्रेणी के पिता वीरश्रेणी वसन्तपुर के नरेश थे। एक दिन प्रजा ने राजा से शिकायत की कि राजकुमार चित्रश्रेणी की सुरूपता नगर की कन्याओं और कुलवधुओं के अमर्यादित आचरण का कारण बन रही है। इसलिए राजकुमार के नगर में स्वच्छन्द विहार पर प्रतिबन्ध लगाया जाए।
प्रजा को पुत्रवत् प्रेम करने वाले नरेश वीरश्रेणी ने अपने निर्दोष पुत्र चित्रश्रेणी को देशनिर्वासन का आदेश दे दिया।
चित्रसेन ग्रामों-नगरों में परिभ्रमण करते हुए रत्नपुर नामक नगर में पहुंचा। वहां भी उसका रूप आकर्षण का केन्द्र बन गया। वहां की राजकुमारी पद्मावती ने यह प्रण किया था कि वह उसी युवक से विवाह करेगी, जो रूप में उससे इक्कीस होगा। फलतः चित्रश्रेणी के रूप पर वह मुग्ध हो गई। उसके पिता ने चित्रश्रेणी के साथ उसका विवाह सम्पन्न कर दिया। नरेश की प्रार्थना पर चित्रश्रेणी रत्नपुर में ही रहने लगा।
भगवान महावीर अपने धर्मसंघ के साथ कलिंग देश के कुमारी पर्वत पर समवसृत हुए। पूरे देश में प्रभु के पदार्पण का सुसंवाद व्याप्त हो गया। चित्रश्रेणी भी प्रभु के दर्शनों के लिए गया। उसके पिता महाराज वीरश्रेणी भी प्रभु की परिषद् में उपस्थित थे। वीरश्रेणी प्रभु की देशना सुनकर मुनिदीक्षा लेने को तत्पर हो गए। उन्होंने पुत्र चित्रश्रेणी को राजपद देकर आर्हती प्रव्रज्या अंगीकार कर ली।
चित्रश्रेणी और पद्मावती ने श्रावक धर्म की दीक्षा धारण की। कालान्तर में चित्रश्रेणी और पद्मावती ने भी निर्ग्रन्थ धर्म में प्रवेश कर आत्मकल्याण किया।
-तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (भाग 1) चित्रसेन
कलिंग देश की राजधानी वसन्तपुर के राजा वीरसेन का पुत्र । अपूर्व और अद्भुत रूप-गुण सम्पन्न राजकुमार। कहते हैं कि चित्रसेन कामदेव के समान रूपवान था। जब वह नगर में घूमने निकलता तो कुलीन बालाएं और विवाहित नारियां कुलधर्म और मान-मर्यादा को भूलकर एकटक उसे देखने लगती थीं। प्रतिदिन ऐसा ही होने लगा तो नगर के बड़े-बूढ़े नागरिक चिन्तित हुए। उन्होंने मिलकर उक्त समस्या राजा के समक्ष रखी। राजा भी गंभीर हो गया। उसने नागरिकों को आश्वस्त कर लौटा दिया। राजा ने गहन गंभीर चिन्तन के पश्चात् अपने पुत्र को देश निर्वासन का आदेश दे दिया। उस अद्भुत और दुखद आदेश के पीछे राजा की एक हिताकांक्षा यह थी कि देशाटन से उसका पुत्र अपने भाग्य की परीक्षा भी करेगा।
पिता के आदेश को शिरोधार्य कर चित्रसेन अपने नगर से चल दिया। मंत्रीपुत्र रत्नसार राजकुमार का मित्र था। सो उसने भी मित्र का अनुगमन किया। दोनों मित्र कई वर्षों तक देश-विदेशों में भ्रमण करते रहे। एक जगह एक देवमंदिर में एक प्रस्तर-पुतली को देखकर राजकुमार का हृदय अनुराग से भर गया। एक ज्ञानी मुनि से उसने अपने हृदय की स्थिति निवेदित की। इस पर मुनि ने स्पष्ट किया कि वह प्रस्तर-पुतली पद्मपुर नगर के महाराज पद्मरथ की पुत्री पद्मावती की प्रतिमा है। पद्मावती और चित्रसेन पूर्वजन्म में हंस-युगल थे। इसीलिए पद्मावती की प्रतिमा को देखते ही चित्रसेन उस पर अनुरक्त हो गया है। चित्रसेन की प्रार्थना पर मुनि ने उसका पूर्वभव उसे इस प्रकार सुनाया
चित्रसेन! पूर्वजन्म में तुम हंस थे और पद्मावती हंसिनी थी। तुम्हारे दो नवजात पुत्र भी थे। एक बार तुम पुत्रों के लिए जलाशय से जल लेने गए तो सहसा वन में आग लग गई। हंसिनी तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही, पर जलाशय दूर होने के कारण तुम समय पर नहीं पहुंच सके। इससे हंसिनी के हृदय में नर के प्रति ... जैन चरित्र कोश ...
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