________________
वीतभयपत्तन नगर के राजा उदायन के महलों में काम करने वाली स्वर्णगुल्लिका नामक दासी को चंडप्रद्योत उठाकर ले गया। नारी की मान-मर्यादा के रक्षक महाराज उदायन चंडप्रद्योत की इस धृष्टता को सहन नहीं कर पाए और उन्होंने सुदूर स्थित उज्जयिनी पहुंचकर घोर संग्राम के पश्चात् न केवल स्वर्णगुल्लिका को मुक्त कराया बल्कि चंडप्रद्योत को भी बन्दी बना लिया। उन्होंने बन्दी चंडप्रद्योत के मस्तक पर तप्त शलाका से 'मम दासीपति' का दाग लगवा दिया। .. चंडप्रद्योत को बन्दी बनाकर महाराज उदायन अपने देश को चले। मार्ग में वर्षा से मार्ग अवरुद्ध हो जाने से उन्होंने उचित स्थान पर सैन्य शिविर डलवा दिए। सम्वत्सरी के दिन उदायन ने पौषधोपवास किया
और सान्ध्य-प्रतिक्रमण की बेला में उन्होंने चौरासी लाख जीवयोनियों के प्राणियों से क्षमापना की। उसी क्रम में वे चंडप्रद्योत के पास पहुंचे और सांवत्सरिक क्षमापना करने लगे। चंडप्रद्योत ने इसे समुचित अवसर मानकर कहा-यह कैसी क्षमापना! यह तो ढोंग है। मुझे बेड़ियों में जकड़ा है और मुझ से क्षमा मांग रहे हैं! उदायन को चंडप्रद्योत की बात उचित लगी और उन्होंने उसे न केवल मुक्त कर दिया अपितु उसका जीता हुआ राज्य भी उसे लौटा दिया।
अपनी लोभवृत्ति के कारण चंडप्रद्योत को महाराज द्विमुख (प्रत्येकबुद्ध) से भी मुंह की खानी पड़ी। महाराज द्विमुख के पास एक ऐसा मुकुट था, जिसे धारण करने पर धारणकर्ता के दो मुख दिखाई देते थे। उसे धारण करने के कारण ही महाराज द्विमुख का ऐसा नाम ख्यात हुआ था। चंडप्रद्योत उस मुकुट को पाने के लिए ललचाया, पर द्विमुख ने उसे धूल चटा दी। ___चंडप्रद्योत के जीवन के अन्यान्य भी कितने ही प्रसंग हैं। निष्कर्ष यह है कि वह एक कामी और लोभी राजा था। इन्हीं दुर्गुणों के कारण शक्तिसम्पन्न होते हुए भी वह पुनः पुनः पराजित, प्रताड़ित और अपमानित होता रहा।
-मलयगिरि चंडरुद्राचार्य . एक जैनाचार्य, जो अपने नाम के अनुरूप ही क्रोधी-प्रकृति थे। वे वृद्ध और रुग्ण बन चुके थे, देह जीर्ण हो चली थी पर क्रोध जीर्ण न हुआ था। किसी समय जब वे उज्जयिनी नगरी के बाहर उद्यान में ठहरे थे तो उधर उसी नगरी के रहने वाले कुछ युवक मित्र घूमते हुए उनके पास पहुंचे। उस मित्रमण्डली में चंद्रयश नाम का एक युवक भी था, जिसका हाल ही में विवाह हुआ था और जिसके विवाह का प्रतीक हाथ का कंगना भी नहीं खुला था। मित्रों ने हास्य में चंद्रयश की ओर इंगित कर आचार्य से कहा कि महाराज! इसे बड़ा वैराग्य हो आया है, इसे साधु बना लीजिए, जिससे इसके भावों को मंजिल मिलेगी और आपको इस बुढ़ापे में सेवा करने वाला शिष्य मिल जाएगा! ____ आचार्य चंड प्रकृति के तो थे ही। उन्होंने पास ही पड़ी राख से झट से मुट्ठी भरी और चंद्रयश के बालों का लुंचन कर दिया। चंद्रयश ने इस हास्य को अन्तर्हृदय से स्वीकार करते हुए मुनिव्रत ग्रहण कर लिया। यह देखकर मित्रदल खिसक गया। चंद्रयश ने गुरुदेव को राय दी कि उसके पारिवारिक उसे परेशान न करें, अतः रात्रि में ही उन्हें विहार कर देना चाहिए। आचार्य ने चलने में अपनी असमर्थता बताई तो चंद्रयश ने उन्हें कन्धे पर बैठाकर ले चलने की बात कही। आचार्य की स्वीकृति पर चंद्रयश उन्हें कन्धे पर बैठाकर चल दिया। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर पैर ऊपर-नीचे पड़ते तो कन्धे पर बैठे आचार्य को बहुत पीड़ा होती। उनका क्रोध उबलता। वे अपशब्दों से शिष्य की भर्त्सना करते और रजोहरण के दण्ड से उसके सर पर प्रहार करते। .... 158
... जैन चरित्र कोश ...