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इस घटना को सुखदत्त भी देख रहा था। घेवर का वर्ण और गन्ध देखकर उसका मन उसे खाने के लिए ललचा उठा। पर कैसे खाए, यह विकट समस्या थी। जीवन में उसने घेवर देखा तो कई बार था पर खाने का अवसर उसके जीवन में नहीं आया था। उसके मन में ऊहा-पोह मचने लगा। वह मुनि के पीछे-पीछे चल दिया। मुनि अपने स्थान पर पहुंचे। सुखदत्त ने मुनि को नमस्कार किया और कहा कि पहले वे स्वयं घेवर खाएं, शेष जो बचे, वह उसे दे दें। सुखदत्त की सोच थी कि मुनि को तो आधे घेवर की ही आवश्यकता है। पर वह मुनि की आचार-मर्यादा से अभिज्ञ था। मुनि ने उसको मुनि का आचार समझाया और स्पष्ट किया कि एक मुनि अपने समान आचार वाले मुनि को ही अपना लाया हुआ आहार दे सकता है, अन्य को नहीं। उसके आहार में संविभागी बनने के लिए उसे भी उनके समान आचार का पालन करना होगा। ___ मुनि की बात सुनकर सुखदत्त एकाएक साधु बनने के लिए तैयार हो गया। मुनि ने सुखदत्त के स्वभाव और भाव को परखा तथा उसकी सरलता से सन्तुष्ट होकर उसे प्रव्रजित कर लिया। चूंकि घेवर के आकर्षण में बंधकर युवक सुखदत्त साधु बना था, इसलिए वह जगत में घेवरिया मुनि के उपनाम से सुख्यात हुआ।
गुरु के उपदेश से शीघ्र ही घेवरिया मुनि ने रसनेन्द्रिय पर विजय पा ली और वे तप, संयम और स्वाध्याय में समग्रभावेन दत्तचित्त हो गए। विशुद्ध चारित्र की आराधना द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर वे मोक्ष के अधिकारी बने।
... जैन चरित्र कोश ...
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