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की स्थिति पर बड़ा कष्ट हुआ। इसके लिए उसने स्वयं को दोषी माना। गुरु को पुनः सन्मार्ग पर लाने का उसने संकल्प किया। उसने विचार किया कि अगर उसके गुरु में करुणा और लज्जा-इन दो गुणों में से एक गुण भी शेष है तो उन्हें सन्मार्ग पर लाया जा सकता है। परीक्षा के लिए उसने देव-विकुर्वणा से छह अबोध बच्चों की विकुर्वणा की। वे बच्चे गहनों से लदे थे। वे आचार्य के समक्ष आए और उन्होंने आचार्य को वन्दन किया। आचार्य द्वारा उनका परिचय पूछने पर उन्होंने पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस् काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय
और त्रसकाय अपने नाम बताए तथा बताया कि वे अपने अभिभावकों के साथ आपके ही दर्शनों के लिए निकले थे, पर अभिभावकों से बिछुड़ कर मार्ग भटक गए हैं। अच्छा हुआ कि आपके दर्शन हो गए।
आषाढ़भूति आचार्य का ध्यान बच्चों के शरीर पर धारण किए हुए गहनों में उलझ गया। उन्होंने विचार किया कि गृहस्थ में जिस चीज की सबसे बड़ी आवश्यकता होती है, वह है धन। षड्जीवों की दया पालते बहुत समय बिताया है पर दयाधर्म तो असत्य सिद्ध हुआ। धन ही सत्य है जिसके प्रभाव से गृहस्थ सुख भोगते हैं। अतः मुझे इन बालकों से इनके गहने छीन लेने चाहिएं। आचार्य ने बालकों के गहने छीन लिए और उनके कण्ठ मसोस कर छहों की हत्या कर दी। पात्रों में आभूषण भर कर आचार्य आगे बढ़े।
तदनन्तर देव रूपी शिष्य ने एक अन्य उपक्रम किया। आचार्य कुछ ही आगे बढ़े थे कि उन्हें सामने श्रावकों का एक समूह मिला। सभी श्रावकों ने भक्ति-नत हो वन्दन किया और आहार ग्रहण करने की प्रार्थना की। आचार्य ने आहार लेने से इन्कार कर दिया। आखिर आहार लेते भी तो कैसे? पात्रों में तो आभूषण भरे थे। परन्तु श्रावकों ने अत्याग्रह दर्शाया और आचार्य की झोली पकड़कर आहार देने को प्रस्तुत हुए। पर पात्रों में नामांकित आभूषण देखकर श्रावकों ने आचार्य पर हत्या का आरोप लगाया।
आचार्य का पाप प्रकट हो चुका था। लज्जा से वे जमीन में धंसे जा रहे थे। अपने कृत्य पर उन्हें महान पश्चात्ताप हो रहा था। आचार्य की इस मनोदशा को देखकर शिष्य देव प्रकट हुआ। उसने अपने वचन विस्मरण के लिए क्षमा मांगी। आचार्य ने भी अपने पतन पर घोर पश्चात्ताप किया और वे शीघ्र ही पुनः धर्मश्रद्धा में अवस्थित बन गए।
तदनन्तर आचार्य आषाढ़भूति ने उत्कृष्ट अहिंसा, तप और संयम की आराधना की और केवलज्ञान साधकर उसी भव में मोक्ष के अधिकारी बने।
-उत्तराध्ययन वृत्ति आषाढ़ मुनि
जैन कथा साहित्य के पृष्ठों पर आषाढ़ मुनि का चरित्र भावपूर्ण शब्दावलि में अंकित हुआ है। संक्षेप में उस महामुनि के जीवन की परिचयात्मक रेखाएं निम्नोक्त हैं
आषाढ़ बाल्यकाल में ही मुनि बन गया था। उसके गुरु का नाम था आचार्य धर्मरुचि। यौवन-द्वार पर कदम रखते-रखते आषाढ़ मुनि ने उत्कृष्ट तप के द्वारा रूपपरावर्तिनी आदि अनेक दिव्य लब्धियां प्राप्त कर ली थीं। वह तपस्वी था, लब्धिधारी था, पर रसना इन्द्रिय पर उसका पूरा अंकुश न था। यही इकलौता छिद्र था उसकी संयम रूपी नौका में।
किसी समय गुरु के साथ आषाढ़ मुनि राजगृह नगरी पधारे। वहां के राजा का नाम सिंहरथ था। आषाढ़ भिक्षा के लिए चले। संयोग से महर्द्धिक नट के द्वार पर गए। नट की दो सुन्दर कन्याएं थीं-भुवनसुंदरी और जयसुंदरी। उन्होंने मुनि को भिक्षा में एक मोदक दिया। मोदक के रूप और गन्ध में आषाढ़ का मन अटक गया। गली में पहुंचते-पहुंचते विचार जगा कि एक मोदक तो गुरु के लिए है। ऐसा विचार आते ही ... जैन चरित्र कोश ...
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