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यौगलिक परम्परा के अनुसार युवावस्था प्राप्त होने पर ऋषभदेव और सुमंगला पति-पत्नी बन गए। एक अन्य कन्या, जिसका नाम सुनन्दा था, का सहजात पुरुष अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया था । उसका लालन-पालन नाभिराय और मरुदेवी ने ही किया था। उसका लग्न भी ऋषभदेव के साथ सम्पन्न किया गया। कालक्रम से सुमंगला ने भरत प्रमुख निन्यानवे पुत्रों व ब्राह्मी नामक एक पुत्री को जन्म दिया। सुनन्दा बाहुबली नामक एक पुत्र व सुन्दरी नामक एक पुत्री को जन्म दिया।
यौगलिक युग मनुष्यों की आवश्यकताएं अत्यन्त सीमित थीं । कल्पवृक्षों से उनकी समस्त आवश्यकताएं सहज ही पूर्ण हो जाती थीं। पर समय बदल रहा था । एकरस चली आ रही प्राकृतिक मर्यादाएं बदल रही थीं । चतुर्थ आरे के निकट आते-आते जनसंख्या में तीव्रता से वृद्धि होने लगी थी। कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण हो चली थी। ऐसे में यौगलिकों में असंतोष पनपने लगा। उस समय ऋषभदेव ने अपने जन्मजात ज्ञान के बल पर कर्मयुग का सूत्रपात किया । मनुष्य को कर्म करना सिखाया। असि, मसि और कृषि का आविष्कार किया ।
उस समय कुलकर व्यवस्था प्रभावहीन हो रही थी । अतः देवों की प्रार्थना पर भगवान ऋषभदेव ने राजनीति की आधारशिला रखी। राजव्यवस्था के नियम बनाए । यौगलिकों और देवताओं की प्रार्थना पर ऋषभदेव ही प्रथम राजा बने। देवताओं ने अयोध्या नाम की नगरी बसाकर ऋषभदेव का राजतिलक किया।
भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी के हाथ से ब्राह्मी आदि अठारह लिपियों और सुन्दरी के हाथ से गणित विद्या का आविष्कार किया। इस प्रकार तिरासी लाख पूर्व तक गृहस्थ में रहते हुए ऋषभदेव ने जगत को समस्त भौतिक कर्मों में पारंगत बना दिया ।
उस समय तक जनता धर्म शब्द तक से भी अपरिचित थी। भगवान ऋषभदेव ने समस्त जागतिक दायित्व पूर्ण करने के पश्चात् अध्यात्म में प्रवेश करने का संकल्प किया। उन्होंने अपने राज्य के सौ भाग कर अपने पुत्रों में समान विभाग बांट दिए । भरत को अयोध्या का तथा बाहुबली को बहली प्रदेश का राज्य मिला। शेष अठानवें पुत्रों को विभिन्न नगरों और देशों के राज्य मिले।
ऋषभदेव ने एक वर्ष तक वर्षीदान किया। तदुपरान्त वे चार हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। वे कर्मयुग के प्रथम मुनि बने । उस समय की जनता मुनि के नियमोपनियमों से पूर्ण रूप से अपरिचित थी । मुनि भिक्षाजीवी होता है। पर लोग भिक्षाविधि के ज्ञान से सर्वथा शून्य थे । भगवान भिक्षा के लिए नगर में जाते तो लोग उन्हें ससम्मान हीरे-मोती, हाथी-घोड़े आदि भेंट करते । भगवान इन भेंटों को अस्वीकार कर देते। किसी को यह नहीं सूझता कि भगवान को हीरे-मोती नहीं, बल्कि भोजन चाहिए। भगवान आते और चले जाते । एक वर्ष तक भगवान निराहारी रहे ।
भिक्षा प्राप्त न होने से कच्छ - महाकच्छ आदि अनेक मुनि भूख से व्याकुल हो गए। वे संयम से चलित होकर कन्दमूलादि से उदर-पोषण करने लगे। उन्हीं से जैनेतर परम्पराओं का प्रारंभ हुआ।
एक दिन भगवान ऋषभदेव भिक्षा के लिए नगर में भ्रमण कर रहे थे। भगवान का पौत्र श्रेयांस कुमार अपने महल के द्वार पर खड़ा था। उसने भगवान को देखा । निर्निमेष देखता रहा । आखिर उसे जाति - स्मरण ज्ञान हो गया । पूर्वजन्मों की स्मृति आते ही उसे भिक्षा विधि का ज्ञान मिल गया। अपने ज्ञान बल से उसने जान लिया कि भगवान एक वर्ष से निराहारी हैं। उसने भगवान से भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की। शुद्ध प्रासुक इक्षुरस का दान भगवान को दिया। 'अहोदानं' की दिव्य ध्वनियों से नभमण्डल गूंज उठा। पंच द्रव्यों की वृष्टि हुई। दान धर्म का प्रचलन प्रारंभ हुआ। वह दिन वैशाख शुक्ल तृतीया का दिन था। आज भी उस दिन • जैन चरित्र कोश •••
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