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को अक्षयतृतीया के रूप में मनाया जाता है। भगवान के वर्षीतप के उपलक्ष्य में आज भी जैन धर्म में वर्षीतप का बहुप्रचलन है। ___एक हजार वर्ष तक साधना करने के पश्चात् भगवान को पुरिमताल नगर में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान ने धर्मतीर्थ की संस्थापना की। उनके पुंडरीक आदि चौरासी गणधर थे। एक लाख पूर्व तक अरिहंत पद पर रहकर भगवान ऋषभदेव दस हजार मुनियों के साथ माघ वदी 13 को अष्टापद पर्वत पर सिद्ध हुए। ऋषभानन स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
सप्तम विहरमान तीर्थंकर, जो वर्तमान में धातकी खण्ड के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की वपु विजय में विचरणशील हैं। वपु विजय की सुसीमा नगरी में प्रभु का जन्म हुआ था। महाराज कीर्तिराय और उनकी पट्टमहिषी वीरसेना प्रभु के जनक और जननी हैं। यौवन वय में राजकुमारी जयादेवी के साथ प्रभु का पाणिग्रहण हुआ। तिरासी लाख पूर्व की अवस्था तक प्रभु ने शासन सूत्र संभाला। तदनन्तर वर्षीदान देकर प्रभु प्रव्रजित बने। केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ की संस्थापना की और तीर्थंकर पद पाया। असंख्य भव्यजनों को आत्मकल्याण का अमृतपान कराते हुए चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु निर्वाण को उपलब्ध होंगे। ऋषिदत्ता
राजर्षि हरिषेण की पुत्री। उसका जन्म जंगल में ही हुआ था। जन्म की घटना विचित्र है। एक राजकुमारी होते हुए भी उसे जंगल में जन्म इसलिए लेना पड़ा क्योंकि जब वह गर्भ में थी, तभी उसके पिता ताम्बावती नरेश महाराज हरिषेण और उनकी रानी प्रीतिमती ने तापस धर्म की प्रव्रज्या ले ली थी। फलतः जंगल में तापसी प्रव्रज्या का पालन करते हुए प्रीतिमती ने पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम ऋषिदत्ता रखा गया। पुत्री के जन्म के दसवें दिन ही प्रीतिमती का देहान्त हो गया। पुत्री का लालन-पालन राजर्षि हरिषेण ने किया।
ऋषिदत्ता जंगल में कंदमूल खाकर जवान हुई। एक बार रथमर्दनपुर नगर के महाराज हेमरथ का पुत्र कनकरथ उसी मार्ग से, जिस मार्ग के निकट राजर्षि हरिषेण की पर्णकुटी थी, अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ काबेरी नगरी की राजकुमारी रुक्मिणी से विवाह करने के लिए जा रहा था। उधर से गुजरते हुए कनकरथ की दृष्टि ऋषिदत्ता पर पड़ी। वह उसके रूप पर मोहित हो गया। कनकरथ को देखते ही ऋषिदत्ता एक दिशा में चली गई। राजकुमार उसके पीछे-पीछे गया। राजर्षि हरिषेण से उसका परिचय हुआ। राजर्षि ने भी अपना परिचय दिया और ऋषिदत्ता के जन्म की घटना वर्णित की। राजकुमार कनकरथ ने राजर्षि से उनकी पुत्री की याचना अपने लिए की, जिसे राजर्षि ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फलतः जंगल में ही ऋषिदत्ता से विवाह रचाकर कनकरथ वापिस अपने नगर को लौट गया। ऋषिदत्ता के रूप और गुणों पर वह ऐसा मुग्ध हुआ कि उसे रुक्मिणी का विचार ही नहीं आया। अपने नगर में पहुंचकर वह आनन्दपूर्वक रहने लगा। __उधर काबेरी नरेश ने सुनिश्चित समय पर अपनी पुत्री के विवाह के समस्त प्रबन्ध किए थे। परन्तु यह जानकर कि राजकुमार कनकरथ मार्ग में ही किसी कुमारी से पाणिग्रहण कर वापिस लौट गया है, काबेरी राजपरिवार में शोक व्याप्त हो गया। रंग में भंग देखकर राजकुमारी रुक्मिणी मूर्छित हो गई। राजा ने पुत्री को संभाला और सान्त्वना दी कि उसका विवाह किसी अन्य राजकुमार से किया जाएगा। रुक्मिणी ने पितृ-प्रस्ताव को नकारते हुए कहा कि अगर वह विवाह करेगी तो कनकरथ से ही करेगी, अन्यथा आजीवन अविवाहित रहेगी। ... जैन चरित्र कोश ..
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